Saturday, November 27, 2010

भैया...ये तो डाउन मार्केट है!

रात को टीवी पर शोले मूवी देख रहा था। बीच में ब्रेक हुआ तो चैनल बदलने लगा। चैनल बदलते बदलते एनडीटीवी पर रवीश की रिपोर्ट कार्यक्रम आ रहा था। देखने लगा। गढ़मुक्तेश्वर के किसी मेले पर आधारित थी ये रिपोर्ट। कार्यक्रम अच्छा लगा तो मूवी का इरादा छोड़ कर उसे देखने लगा। कार्यक्रम खत्म होने के बाद फिर शोले मूवी देखी और सो गया। सुबह उठा। अपना अखबार उठाया तो पन्ना पलटते पलटते एडिटोरियल पेज पर पहुच गया। देखा वहां पर रवीश कुमार का एक लेख सोसाइटी में मोहल्ला लिखा हुआ था। उसको पढ़ा। अच्छा लगा। खैर, अमूमन सभी न्यूज पेपर पढऩे के बाद मार्निंग मीटिंग के लिए ऑफिस पहुंचा। चूंकि रविवार था और लगभग सभी सरकारी कार्यालय बंद होते हैं, इसलिए रोज की तरह जल्दी भागना नहीं था सो कुछ साथियों से अपने अखबार के एडिटोरियल पेज की तारीफ करने लगा। खासकर रवीश कुमार के लिखे गए सरोकार कॉलम का। मैनें अपने एक साथी को रात वाली रवीश की रिपोर्ट का भी जिक्र किया। मैंने कहा कि उस रिपोर्ट ऐसे मेले का जिक्र था जो एकदम अपने गांव जैसा मेला था। जिसको देखे मुझे तो कम से कम दस साल हो गए हैं। इसलिए पूरा कार्यक्रम देखा और पुराने दिनों में कुछ पल के लिए खो भी गया। जिस अखबार में काम करता हूं उसके उसके एडिटोरियल पेज पर रवीश कुमार का सोसाइटी में मोहल्ला भी आज की व्यथा और कथा कहता हुआ सामयिक कॉलम हैं, इसलिए पसंद आया। मैं अपने जिन साथी से चरचा कर रहा था वह भी ऐसे सरोकारों से प्रेरित रिपोर्ट्स और कॉलम में सहमति जता रहे थे।
तभी हमारे एक अन्य साथी जो इस बातचीत के दौरान का हिस्सा थे बोल पड़े...क्या एनडीटीवी डाउन मार्केट रिपोर्ट देता है। रवीश कुमार क्या डाउन मार्केट पर ही लिखते हैं? वह कहने लगे कि ये मेला...बैलगाड़ी...गंदे बच्चे...गंवई अंदाज...गंवई गाने...गांव की कच्ची सड़के, मोहल्ले का कांसेप्ट और न जाने क्या क्या गिनाने लगे। अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोले भैया...ये सब तो डाउन मार्केट है। देखो न...अब कौन पूछता है इनको। इनके दम पर टीआरपी और रीडरशिप नहीं बढ़ती। कुछ बेचना है तो हॉट बेचो। सनसनी बेचो। तुक्के बेचो। हाई सोसाइटी को ध्यान मे रखकर बेचो। सबको ऐसी सोसाइटी तक अपनी पैठ बनानी है। इसलिए ये डाउन मार्केट वाली खबरों और रिपोर्ट्स से कुछ नहीं होने वाला।
खैर मैने उनकी बातें सुनी...और उनकी बात से कुछ हद तक सहमति भी जताई। मैं एनडीटीवी का मुरीद नहीं हूं और उसकी वकालत भी नहीं करता इसलिए मुझे नहीं मालूम कि रवीश की रिपोर्ट और उनके जैसे अन्य टीवी कार्यक्रमों की टीआरपी क्या है...मुझे इसका कतई इल्म नहीं है कि अखबार के एडिटोरियल में लिखे ऐसे लेख को पढऩे के बाद कितने लोगों ने वाह कहा होगा और कितनों ने डाउन मार्केट कहते हुए आगे का पन्ना पलट दिया होगो...लेकिन मुझे इतना जरूर मालूम है ऐसी डाउन मार्केट रिपोर्ट्स और कॉलम दिल को उस अपनेपन का अहसास जरूर दिला जाते हैं जिसे कभी आपने बचपन में महसूस किया था। जिसे हम डाउन मार्केट रिपोर्ट कहते हैं शायद उसको हमारे और आपके बुजुर्गों ने भी महसूस किया होगा।

Saturday, November 13, 2010

मिस्टर प्रेसीडेंट...हम निपट लेंगे

हम निपट लेंगे पा·िस्तान से। हमें निपटने ·े लिए ·िसी ·ी मदद ·ी जरूरत नही है। ले·िन जिस तरह से अमेरि·ी राष्ट्रपति बरा· ओबामा ·ी इंडिया विजिट ·े दौरान मीडिया ने तमाशा बनाया वह अमेरि·ी राष्ट्रपति ·े सामने ना· रगडऩे से ·म नहीं था।
हर टीवी चैनल पर सिर्फ ए· ही सवाल...आखिर अमेरि·ा पा·िस्तान ·े लिए साफ साफ शब्दों में ·ुछ क्यों नहीं ·हता। क्यों नहीं पा·िस्तान ·ो वह आतं·ी देश घोषित ·र देता। बरा· ओबामा क्यों दलील दे रहे हैं ·ि दोनों देश मिल·र अपना मामला सुलझाएं...और भी बहुत से सवाल थे जो मीडिया रह रह ·र बरा· ओबामा ·ी विजिट ·े दौरान उठा रहा था। सवाल उठता है ·ि इतना सब ·ुछ ·रने ·े बाद मिला क्या। इसलिए क्या जरूरी था यह सब ·रना। और अगर ·िया भी तो ओबामा ने पा·िस्तान ·ो क्या ·ह दिया। चलो मान लें ·ुछ आतं·ी ठि·ानों ·े बारे में ·ह भी दिया हो तो क्या हुआ। पा·िस्तान ·ो तो ·ुछ नहीं ·हा। फिर भी हम खुश हो लिए...ओबामा ने लगाई पा· ·ो झाड़...। ले·िन जनाब...न पा·िस्तान बदला और न ही उस·ी ·रतूत। फिर क्यों हम लोग तीन दिनों त·...ओबाम आए क्या लाए...ओबामा आए क्या लाए से ले·र पा·िस्तान पर अमेरि·ी टिप्पणी ·ा सवाल उठा रहे थे।

सोचने ·ी बात है अगर बरा· ओबामा भारत ·ी धरती पर आए थे तो हम·ो यह गफलत पालनी ही नहीं थी ·ि वह पा·िस्तान ·ो भारत में पहुंचने ·े बाद आतं·ी राष्ट्र घोषित ·रेंगे। ऐसा हुआ भी नहीं। दूसरी बात मीडिया से ले·र हर शख्स ·ो समझनी चाहिए थी ·ि जो अमेरि·ा पा·िस्तान ·ी जमीन ·ा इस्तेमाल युद्ध ·े लिए ·रता हो वह अपने पैरों पर ·ुल्हाड़ी इतनी जल्दी क्यों मार लेगा। तीसरी बात और सबसे अहम बात जो है वह यह है ·ि अमेरि·ा ·ी बिगड़ती अर्थव्यवस्था ·ो सुधारना वहां ·े राष्ट्रपति ·े लिए चुनौती बना है। दुनिया में बादशाहत बर·रार रखने ·े लिए चौधरीपना जरूरी है ले·िन यह तभी हो स·ेगा जब आप अपने देश में मजबूत होंगे। सो उन·ा मुख्य म·सद दोनों देशों ·े बीच व्खपारि· रिश्तों पर जमी हुई और जम रही धूल ·ो साफ ·रने आए थे। मालूम होना चाहिए ·ि अपनी एशिया विजिट से ए· रोल पहले बरा· ओबामा ने व्हाइट हाउस से ही बेरोजगारों ·े लिए रि·्रूटमेंट पर नजर त· रखने ·ी व्यवस्था ·ी थी। हम लोगों ·ो मान·र चलना चाहिए ·ि पा· से निपटने ·े लिए ·िसी ·ी मदद ·ी जरूरत नहीं है। यह बात हमारे साथ साथ पा·िस्तान ·ो भी मालूम है।

Monday, July 5, 2010

ये देखिए...धोनी की शादी के जूठे पत्तल

नमस्कार मैं हूं आशीष...और आप देख रहे हैं फलां चैनल...आइये आपको लेकर चलते हैं उस बारात में जहां पर हमको कल घुसने नहीं दिया गया। लेकिन अपने दर्शकों के खातिर हम पड़े रहे वहां पर...और महेंद्र सिंह धोनी की शादी के बाद लेकर आए हैं आपके लिए एक्स्क्लूसिव तस्वीरें। वे तस्वीरें जो सबसे पहले हमारे चैनल पर ही दिखाई देंगी। पेश है हमारे साथी प्रवीण पाण्डेय की खास रपट (उजड़े हुए मंडप से)।

यह देखिए...आपका पसंदीदा चैनल सबसे पहले पहुंचा धोनी के मंडप में। यही वह जगह हैं जहां पर धोनी ने सात फेरे लिए थे...यही वह जगह है जहां पर धोनी ने साक्षी सिंह रावत को अपना बनाया...ये वही गलियारा है जहां से धोनी निकले थे...देखिए...देखिए...सबसे पहली तस्वीर आपकी स्क्रीन पर...धोनी की घोड़ी के पांव के निशान...जो अभी भी ताजे हैं। ये देखिए वह कुर्सियां....जिन पर यहां आए अतिविशिष्टï साठ मेहमानों ने तशरीफ रखी थी। मैं अपने कैमरामैन पवन धीमान से चाहूंगा कि कैमरे का फोकस उधर भी करें जहां पर रात भर कल हमलोग घुसने के लिए जोर आजमाईश करते रहे लेकिन घुसना तो दूर यहां तक फटकने भी नहीं दिया गया। चलिए अब चलते हैं उस ओर जहां पर भोजन की व्यवस्था थी...ये देखिए जूठे पत्तल...देखिए इसमें सब्जी भी लगी हुई है...उधर देखिए...खा कर फेकी गई रसमलाई...झींगें की टांगें भी इधर उधर पड़ी दिख रही हैं। यह वही जगह है जहां पर कल शहनाई बज रही थी। मैं उन दर्शकों को बताना चाहूंगा जिन लोगों ने अभी अभी अपना टीवी सेट ऑन किया है...ये वह तस्वीरें हैं जहां धोनी की शादी हुई थी...आप लोगों बताना चाहूंगा कि फलां चैनल सबसे पहले आपके लिए लाया है ऐसी एक्स्क्लूसिव तस्वीरें। खबर हर कीमत पर...सबसे तेज...आपको रखे आगे...सच जो हम दिखाएं...बोलती तस्वीरे...।

तभी वहां जूठे पत्तल हटाने वाला अरविन्द रावत मिल गया। मैं फिर चालू हो गया...आइये आपको मिलवाते हैं उस चश्मदीद गवाह से जो धोनी और साक्षी की शादी का साक्षी बना। क्या नाम है आपका...अरविन्द रावत...यहां क्या¢ कर रहे हो...जी जूठे पत्तल हटा रहा हूं...कल आप थे शादी में...हां जी था...क्या देखा आपने शादी में...जी दोनों लोगों की शादी हो गई...यह बताइये धोनी ने घोड़ी से उतरते वक्त अपना बायां पैर जमीन पर रखा था या दाहिना...धोनी की शादी में व्यंजन कैसे थे...जी बहुत अच्छे थे...आपने चखे थे...हां जी खाया था...देखिए...ये लकी रावत जी हैं जिन्होंने धोनी की शादी में खाना भी¢ खाया था(मैंने रात में लक्ष्मी कंपनी की नमकीन और दो बार चाय पी ही थी )खैर...अच्छा धन्यवाद...।

यह थे चश्मदीद रावत जी...जो हमको बता रहे थे शादी का आंखों देखा हाल...

आप ने देखा धोनी की शादी की एक्स्क्लूसिव तस्वीरें।

फिलहाल हम लेते हैं एक छोटा सा ब्रेक...आप बने रहिए हमारे साथ...कुछ और ताजा तरीन तस्वीरों के साथ...

मुझे लगता है हमारे टीवी के भाई धोनी के श्रीलंका दौरे के बाद होने वाले हनीमून की भी ऐसी ही कवरेज करेंगे। अगर ऐसी कवरेज हुई...तो खुदा खैर करें...क्या क्या दिखाएंगे और बताएंगे। तौबा..तौबा...तैबा...

Sunday, June 27, 2010

रात, अंधेरा, भूत और खौफ

एक हमारे साथी हैं। बहुत ही सज्जन हैंं। उनकी खास बात यह है कि वह अपनी एक सबसे बड़ी कमजोरी को सबके सामने मुस्कुराते हुए बता देते हैं। दरअसल वह रात को डरते बहुत हैं। डर की वजह भी बताते हैं। कहते हैं कि भाई साहब रात को भूत से डर लगता है। अकेले सो नहीं सकते।
इसी रविवार को मैं दफ्तर में लंच कर रहा था। तभी वह भी पहुंच गए। मैंनू पूंछा भई...क्या हाल है। कल रात को आप घर पर नहीं आए थे। तो उन्होंने बताया भाईसाहब मैं रात को अपने घर पर ही था। यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ, पूछा और कौन था...उन्होंने थोड़ा गर्व से कहा कि...कोई नहीं...भाई साहब मैं अकेला ही था...मेरे मुंह से अचानक निकला...अरे नहीं...फिर...सोए कब थे...। बस फिर क्या था...उन सज्जन साथी ने फिर बड़ी विनम्रता से कहा...सोया कहां...रात भर जाग कर लैपटाप पर फिल्म देखी...अपने हिन्ूद रीति रिवाज के अनुसार प्रात: कालीन तीन बजे से भूत प्रेत और अन्य तमाम ऐसी विपदाएं अपने डेरे में चली जाती हैं। इसलिए उसके बाद डर लगना बंद हो गया और चद्दर तान कर सो गया। वैसे उसकेबाद हल्की रोशनी भी होने लगी थी।

एक बार की बात है यही सज्जन रात को डेस्क से काम करके करीब बारह बजे घर जा रहे थे। स्ट्रीट लाइट बंद थी सो रास्ते में अंधेरा था। बा फिर क्या था...भाई साहब को हनुमान जी याद आ गए। तुरंत हनुमान चालीसा का पाठ शुरू कर दिया। रास्ते भर हनुमान चालीसा पढ़ी और जैसे तैसे घर पहुंचे। अगले दिन आपबीती भी सुनाई।

Saturday, May 22, 2010

मैं और मर्सिडीज एसयूवी की ड्राइविंग

बहुत ही अच्छा लगा जब मैं दुनिया की सबसे मंहगी एसयूवी में शुमार मर्सिडीज जीएल क्लास में चढ़ा। एक अजब की अनुभूति थी। क्योंकि यह एक तरह से फ्यूचर मशीन में बैठने जैसा था। हवाई जहाज में बैठने का अवसर खूब मिला लेकिन भारत में तकरीबन ढाई करोड़ रुपये में आने वाली मर्सिडीज जीएल क्लास में बैठना और उसे चलाना कुछ अलग ही था। छोटी छोटी ढेर सारी इतनी बटनें और तमाम तरह की स्क्रीन्स। समझ में ही नहीं आ रहा था कि हरी सिंह जी जो कि मुझको इस गाड़ी में सवारी का आनंद दिलानें के लिए बैठे थे कौन सी बटन दबाते ही कार के करतब दिखाने लगते थे। मैं करीब ४८ डिग्री की सीधी चढ़ाई वाली सड़क पर उस गाड़ी से चढऩे लगा तो अचानक हरी सिंह जी ने कार का ब्रेक छोड़ दिया। कहा देखो...कार फिर भी वापस पीछे नहीं आएगी। मैं हैरान था लेकिन ज्यादा नहीं क्योंकि कुछ दिन पहले मैंने मुंबई के अपने एक फिल्म अभिनेता दोस्त से इस सेगमेंट की किसी अन्य एसयूवी की यह खासियत सुनी थी कि इसमें पहाड़ पर चढऩे पर एक ऐसे मोड में गाड़ी डाल देते हैं जो बैक नहीं होती।
खैर...हरी सिंह ने सैर कराई। मुझसे भी ड्राइव करने को कहा...मै सेंट्रो चलाने वाला बंदा...मर्सिडीज...वह भी इतनी तकनीकियों से भरी पूरी ऊपर से इत्ती मंहगी...थोड़ा सा डर लग रहा था...लेकिन सिंह साहब नहीं माने...बोले...मिस्टर तिवाड़ी...प्लीज कम टू दि ड्राइविंग सीट...तभी पास में खड़े मर्सिडीज बेंज के जनरल मैनेजर (प्रोडक्ट मैनेजमेंट) मानस ने मेरा हाथ पकड़ा और ड्राइविंग सीट की ओर ले आए। अब गाड़ी की स्टेयरिंग हाथ में...और दिल में धक धक...खैर गाड़ी बढ़ी तो मुझे पता ही नहीं चला...कब ये रेंगने लगी। करीब पच्चीस से तीस सेकेंड के बाद यही कार मुझसे मानों उउऩे जैसी लगी हो। खाली मैदान में सवा सौ से ज्यादा की स्पीड...बहुत थी। वैसे मैं अपनी बीबी से चुराकर कभी कभार अपनी कार को सौ से ऊपर पहुंचा देता हूं लेकिन कहा न...सिर्फ कभी कभार....।
खैर...मर्सिडीज को हरी सिंह जी के सुपुर्द कर वापस ऑफिस की ओर निकल पड़ा...एक अलग अनुभव के साथ...। ठीक उसी वक्त मुझे वह दिन याद आ रहे थे जब मैं अपने बाबा के साथ बैलगाड़ी पर चढ़कर खेतों में जाया करता था...:)

Sunday, April 25, 2010

वाह रे 'सानिया भाभीÓ

बात बीते हफ्ते की है। शोएब मलिक केकिसी दोस्त ने पाकिस्तान से सानिया मिर्जा को फोन किया और पूछ लिया...भाभी कैसी हो...। बस सानिया के जेहन में शायद सिरहन दौड़ गई। उन्होंने इस बात को मीडिया से शेयर किया कि किसी ने उनको भाभी कहा है। यह सुनना उनके लिए बड़ा अजीब था क्योंकि वह हमेशा सानिया...सानिया सुनने की आदी थी। इस बात को मीडिया भी ले उड़ा...और लगा दी पेज वन पर एंकर टाइप की खबर...'सानिया नहीं, सानिया भाभीÓ। लोगों ने खूब चटकारे ले ले कर खबरें पढ़ी।

अब चूंकि ये सानिया थी और इनको पड़ोसी मुल्क के किसी अपने ने भाभी कहा था सो खबर बननी भी थी। पता नहीं इसमें किसी को हैरत हुई या नहीं लेकिन मुझे इस पर उतनी ही हैरत हुई जितनी शायद सानिया को हुई होगी। होनी भी लाजिमी थी। क्योंकि हमारे यहां बेटियों की परवरिश उस अंदाज में की जाती है कि कभी उनको कोई भाभी, चाची, आंटी या फिर मामी पुकारेगा तो उनको झटका न लगे। कोई बड़े कुनबे वाला छोटा सा बच्चा दादी भी कह सकता है, लेकिन ये सब सुनने में बहुत अजीब नहीं लगता। अब चूंकि सानिया, सानिया मिर्जा हैं...इसलिए उनको ये शब्द बड़ा अटपटा लगा।

मुझे एक वाकिया याद है। मेरे एक रिश्तेदार हैं। प्रदेश की बड़ी शख्सियत हैं और लखनऊ में रहते हैं। उनकी बहन की शादी हुई। शादी के बाद जब वह पहली बार बहन के घर गए तो उनके आने की सूचना किसी ने ऐसे दी...भाभी...देखो नरेश भैया आए हैं। बस नरेश भैया का माथा ठनक गया...खैर रुककर जब वापस घर आए तो अपनी मां से बोले...महतारी जानेउ...ब्ट्यिावा केर घरइ गोमती नगर गएन रहैं...बिट्यावा केर देउर भाभी कहिके बुलाइस...हमार तबहीं माथा ठनक गवा...कि सार हमरी बहन का कौनो अइसउ बुलाई सकत है। खैर उनकी मां ने बताया कि बेटा ऐसा तुमको लगा है लेकिन बेटी को नहीं लगता है। क्योंकि उसको हमेशा से पता था कि एक दिन कोई उसको ऐसे पुकारेगा ही।

अंत में यही कहूंगा कि सानिया सानिया हैं। इसलिए उनको इसका कभी अहसास नहीं हुआ होगा कि कभी उनकी भी रिश्ते की डोर बंधेगी। कोई उनको भी किसी रिश्ते के नाम से पुकारेगा...भाभी...फुफ्फी...खाला...अम्मी...

Sunday, April 11, 2010

चचुआ

मैं रोजना की तरह शाम को दफ्तर में था। तभी हमारे मोबाइल फोन पर म्यूजिक बजने लगा। उठाकर देखा तो तो शहर से चचुआ का फोन था। चचुआ रिटायर्ड 'मास्साबÓ हैं। हैं तो बड़े भले आदमी लेकिन मीन-मेख खूब निकालते हैं। मसलन अगर आप उनसे कहो कि चचुआ ये आपकी पैंट शर्ट बहुत अच्छी सिली है। कहां से सिलवाई। फौरन जबाव देते हैं...क्या खाक अच्छी सिली है। देखो तो...ससुरे ने पैंट में सामने दो दो प्लेटें बना दी हैं। कतई लौंडा बना दिया है मुझे टेलर मास्टर ने। जब तक हम कुछ कहते कहते तब तक दो चार गाली दे मारी टेलर मास्टर को। बेचारा टेलर भी...। अच्छा...चचुआ तुनक मिजाज हैं इसलिए उनको मोहल्ले के लौंडे छेड़ते भी बहुत हैं। चचुआ जब कभी बालों में खिजाब लगा के निकलते हैं तो पूछो मत...कम बालों वाली मूछों पर धर धर ताव देते हैं...बालों में कंघी भी करते हैं...फिर इतना देख मोहल्ले के लौंडे कहीं रुकने वाले...कह ही देते चचुआ...मिथुन चक्रवर्ती लग रहे हो...और इतना कह कर लड़के भाग जाते...बस चचुआ को मिल गया मौका गरियाने का...ये...ये...रम गुलमवा का लौंडा...रुक...रुक और राम गुलाम के लड़के को दौड़ा लेते थे। तब मैं भी छोटा था...बदमाशी करने में पीछे कतई नहीं रहता था। चचुआ को भी छेड़ देता था लेकिन गुपचुप तरीकेसे। एक बार तो किसी की शादी में चचुआ की नाक में किसी ने जलेबी घुसेड़ दी। बस फिर क्या था छींकते छींकते चचुआ की हालत खराब...जब छींकने से फुरसत मिली तो लगे गरियाने...तेरी...। शादी में माहौल गरम हो गया। होना भी था...भई जिसकी नाक में जलेबी डालोगे तो वह भड़केगा ही...खैर...चचुआ की कहांनियां तो बहुत हैं। सुनाऊंगा तो पूरी किताब बन जाएगी। खैर, चचुआ का मैने फोन उठाया...दुआ सलाम हुई...फिर कहने लगे कि बेटा...अब मैं कब आऊं डॉक्टर को दिखाने...चार महीने बाद आने को कहा था...चार महीने होने को हैं...क्या टिकट करवा लूं। मैंने हां में जबाव दिया और फोन कट गया। कुछ देर तक मैं चुपचाप रहा फिर ऑफिस से बाहर निकल आया...सोचने लगा कि ये वहीं चचुआ हैं जो कभी बहुत तुनक मिजाज हुआ करते थे। बात बात पर गरियाते रहते थे। आज...बोलने में उनकी आवाज लडख़ड़ाती है। चलने के लिए किसी का सहारा लेना पड़ता है। बाल सफेद हैं लेकिन उनमे खिजाब नहीं है। बीमारी ने उनको तोड़कर रख दिया है। घर से बाहर निकलना भी अब उनकेलिए मुश्किल है...। आज उनको परेशान करने वाले मोहल्ले के लौंडे देश से लेकर विदेश में अच्छी अच्छी जगहों पर हैं। जिसको भी पता चलता है...वह चचुआ के इलाज के लिए हर संभव मदद करता है। करे भी क्यों न...चचुआ गरियाते थे...लेकिन प्यार भी करते थे...मैं भी उसी मदद करने वालों की कड़ी का एक हिस्सा बन उनका इलाज कराने का छोटा सा प्रयत्न करता हूं। उनका पीजीआई से इलाज चल रहा है। मेरे अच्छे डॉक्टर मित्र हैं जो चचुआ को अपना चचुआ समझ कर इलाज करते हैं।

चचुआ

Sunday, April 4, 2010

लद्दाख की ताशी

ताशी नाम था उसका। उम्र यही कोई दस बारह साल की रही होगी। लद्दाख के कोई बड़ी दूर दराज इलाके से चंडीगढ़ पीजीआई में इलाज कराने के लिए पहुंची थी। घरवालों का साथ नहीं था सो इलाके के किसी लामा ने व्यवस्था की थी उसका इलाज कराने की। उसको ब्लड कैंसर था।
मुझे एक दिन पीजीआई के पुअर पेशेंट सेल से फोन आया कि एक ऐसी लड़की है जिसको मदद की जरूरत है। अगर अखबार में उसकी मदद के बारें कुछ भी आ जाएगा तो शायद उसका इलाज हो सकेगा। फोन सुनने के बाद मैं ताशी से मिलने पहुंचा। उसके साथ दो अन्य लड़कियां उसी के क्षेत्र से आई थी। पद्मा और शीइंग नाम था उनका। मैंने ताशी और उसके साथ आई दोनों लड़कियों से बात की। अगले दिन अखबार में मदद की खबर प्रकाशित की तो शहर के एक एनजीओ ने आगे बढ़ते हुए ताशी का इलाज ताउम्र कराने का वायदा कर दिया। उसका इलाज शुरू हो गया। मैं भी आते जाते उससे कभी कभार मिल लेता था। उसके चेहरे पर बहुत ही मासूमियत थी। जब भी मैं उससे मिलता तो वह हमेशा मुझसे पूछती कि भैया...मैंं ठीक हो जाऊंगी न...मैं भी उसको पूरे विश्वास के दिलासा दिलाता था कि हां...तू बिल्कुल ठीक हो जाएगी। इतना सुनने के बाद वह मुस्कुरा देती थी। फिर कहती थी कि जब मैं ठीक हो जाऊं तो आप मेंरे गांव आना। वहां मैं आपको गाना सुनाऊंगी। फिर वह पता नहीं लद्दाखी भाषा में कोई लोकगीत गुनगुनाने लगती। करीब दो महीने तक दाखिल रहने के बाद डॉक्टरों ने उसको घर भेज दिया।
उसको गए हुए करीब छह सात महीने हो गए थे। उसकी कोई खोज खबर नहीं थी। तभी मैंने उस एनजीओ को फोन करके ताशी का हाल लेने के उसका कोई कांटेक्ट नंबर मांगा। नंबर लेने के दो-तीन दिन बाद मैंने जब फोन कर ताशी का हाल लिया तो पता चला कि...वह अब इस दुनिया में नहीं रही। फोन करने वाले शख्स को जब मैंने अपना परिचय दिया तो उसने बस इतना ही कहा...आप मुझे बाद में फोन करना ...मैं ताशी के अंतिम संस्कार में ही खड़ा हूं।
मैं स्तब्ध रह गया...सोचने लगा कि...वही ताशी...जिसने ठीक होने के बाद न जाने क्या क्या सपने देखे थे...आज लद्दाख के किसी इलाके में उसके सपने दफन हो रहे हैं...उसे गाना गाना अच्छा लगता था...आज के बाद उसकी आवाज उन बर्फीले इलाकों में कभी नहीं गूजेंगी...उसकी छोटी छोटी आंखों के हजारों सपने बिखर गए होंगे...मन में बार बार यही आ रहा था कि पता नहीं उसको हमारी याद होगी भी या नहीं...लेकिन न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि एक अंजान रिश्ता आज हमेशा हमेशा के लिए टूट गया...

Tuesday, February 23, 2010

...वो कैंटीन की स्टोरी

दीवाली से कुछ रोज पहले की ही बात है। हमेशा की भांति मार्निंग मीटिंग में पहुंचा और अपनी ओर से एक धांसू सा स्टोरी आइडिया फेंका। चूंकि उन दिनों शहर के बेहतरीन होटलों में बनने वाले फूड आइटम की असलियत खोलने की 'पड़तालÓ नामक सीरीज सुपर हिट हुई थी। प्रशासन ने हर एक खबर को संज्ञान में लेते हुए त्वरित कार्रवाईयां भी की थी। इसलिए मनोबल भी खूब बढ़ा हुआ था। मीटिंग में बॉस ने उसी सीरीज की एक और कड़ी के तौर पर स्टोरी को बेहतर ढंग से कवर करने को कहा। सो जुट गया उस स्टोरी की तह तक जाने में।
दरअसल ये स्टोरी थी उस कैंटीन मालिक तथा प्रशासन की मिलीभगत की जो कि अस्पताल के नाम पर कैंटीन खोलने के बाद उसको किसी दूसरे परपज के लिए चलाने लगा था। कैंटीन मालिक ने अस्पताल परिसर की बजाए शहर की सबसे भीड़ भाड़ वाली प्रमुख मार्केट की ओर अपनी कैंटीन कम रेस्टोरेंट को शिफ्ट कर दिया। कहानी का जिष्टï था कि जिनके लिए ये सुविधा शुरू की गई वह अभी भी उससे वंचित हैं और उक्त कैंटीन मालिक मरीजों के नाम पर सब्सिडी पाकर अपना धंधा चमका रहा है।
इस मामले की पूरी खबर मैंने अखबार में प्रमुखता से प्रकाशित की। खबर छपते ही प्रशासन पुन: हरकत में आ गया। स्वास्थ्य विभाग ने आनन फानन में उस कैंटीन के आवंटन के कागजात चेक किए और पाया कि जो कुछ अखबार में छपा है वह सही है। इसलिए विभाग ने ततकाल ही उस कैंटीन का ठेका निरस्त कर उसको ब्लैकलिस्ट कर दिया। इसी केसाथ वह कैंटीन बंद हो गई। एक बार फिर से खबर के तात्कालिक असर पर पर बधाईयां मिली।
खैर, फिर वहीं रूटीन शुरू हो गया। रोज की भांति वहीं मीटिंग, वहीं स्टोरी आइडिया और दिन भर काम करके शाम को खबरों का फाइल करना। खबर छपने के तीन दिन बाद अचानक मीटिंग के बाद मेरे पास बॉस जो कि हमारे सिटी इंचार्ज थे, उनका फोन आया। (मैं जिन बॉस की बात कर रहा हूं वह इस वक्त उत्तर प्रदेश की एक बड़ी यूनिट के संपादक हैं) उन्होंने जो कुछ भी बताया वह मुझे सिर्फ और सिर्फ स्तब्ध करने वाली खबर थी। उन्होंने बताया कि बेटा...जो हमने कैंटीन वाली स्टोरी की थी उसका आज मालिक आया था। अपने दोनों बेटों के कंधो का सहारा लेकर। उसको इस खबर के बाद लकवा मार गया। उसका बांया अंग पैरालाइज हो चुका है। बॉस ने बताया कि वह जो कुछ बोल रहा था उससे इतना ही समझ में आ रहा था कि...अब मेरे बच्चों का क्या होगा। उसकी आंखों से निरंतर आंसू बह रहे थे...।
इतना सुनते ही मेरे दिमाग में सिर्फ उसी व्यक्ति की तस्वीर घूमने लगी। जो उस स्टोरी को करने के दौरान वहीं व्यक्ति अपनी कैंटीन की फोटो न करने देने के लिए मेरी बाइक के सामने आ गया था। मेरे फोटोजर्नलिस्ट से कैमरा छींनने लगा था। ऊंची ऊंची आवाज में लडऩे लगा था...आज वहीं...। इतना सुनकर मेरे मुंह से अनायास फोन पर यही निकला कि...सर...अब मैं पत्रकारिता नहीं करूंगा...छोंड़ दूंगा ये प्रोफेशन...वापस अपने घर चला जाऊंगा, लेकिन अब ऐसा प्रोफेशन नहीं करूंगा। मैं ये बात अपने बॉस से कह रहा था लेकिन वह ये बात किसी से कह नहीं सकते थे। क्योंकि वहीं सब कुछ उनकेजेहन में भी चल रहा था। वह मुझसे ज्यादा परेशान थे। उन्होंने कहा भी कि स्टोरी तो तुमने की है लेकिन करवाई तो मैंने ही हैं...शाम को आफिस पहुंचा...काम में तो जी लग नहीं रहा था। मेरे दिमाग में बार बार यही आ रहा था कि कुछ दिनों बाद दीवाली है। क्या आलम होगा उस घर में। सोच सोच कर कम्प्यूटर से उठ कर बाहर आ जाता था...।
सो अगले दिन जो मैंने किया मुझे नहीं मालूम कितना सही था कितना गलत। मैंने स्वास्थ्य सचिव से कहकर उस कैंटीन के रद्द हुए लाइसेंस को दोबारा मान्यता दिलवाई। उसकी फर्म को ब्लैकलिस्ट से बाहर करवाया। मुझे नहीं पता था कि ये वैध था या अवैध लेकिन उसको बगैर टेंडर के दोबारा उसी हॉस्पिटल का ठेका एक साल की बजाए तीन साल का दिलवाया। प्रशासन ने लचीला रुख अख्तियार करते हुए कैंटीन कहीं भी चलाने की लिखित अनुमति दे दी...। पश्चाताप के लिए मैंने ये सब करने की अनुमति अपने बॉस से ले ली थी। लेकिन मुझे और मेरे बॉस को आज भी इस बात का अहसास है कि जो हुआ वह बहुत गलत था...उसका प्रायश्चित कभी नहीं हो सकेगा...लेकिन सुनने में आया था कि अब वह कैंटीन मालिक स्वस्थ है तो कुछ राहत मिली।
आज भी जब मैं कोई स्टोरी करने जाता हूं तो इस बात का पूरा ख्याल रखता हूं कि कहीं कोई हमारी कहानी के चक्कर में ऐसा व्यक्ति न आ जाए जो कि अपनी थोड़ी सी गलती के लिए इतनी बड़ी सजा भुगतने लगे...

Sunday, February 21, 2010

इमली के पेड़ पर यादों क झुरमुट

वह इमली का पेड़ आज भी है। जिसने मुझे अपने बाबा की उंगली पकड़ कर लडख़ड़ाते हुए खेतों में जाते हुए देखा था। मुझे आज भी कुछ कुछ याद आ रहा है कि जब मेरे बाबा खेतों में खाद डालने जाते थे तो मैं भी उनके साथ बैलगाड़ी पर पीछे से चढ़ जाता था। बैलों को हांकना नहीं आता था लेकिन उनके साथ कोशिश किया करता था। बाबा खेतों में खाद डालते थे और मैं चुपचाप उतर कर उसी इमली के पेड़ के नीचे बैठकर उसकी पत्तियों को खाता था। बड़ी खट्टïी पत्तियां होती थी सो ढेर सारी रख लेता था। जो कि घर पर वापस आकर भी खाता था। कभी कभार इसके लिए डांट भी पड़ती थी लेकिन...।
समय बीतता गया और सब कुछ बदलता रहा। मैं गांव से अपने पिता जी के पास शहर पहुंच गया। लेकिन हर छुट्टïी पर मैं पिता जी के साथ जिद करके साइकिल पर गांव जरूर जाता था। गांव जाता तो फिर उनके साथ खेतों पर भी जाता था। उसी इमली के पेड़ की पत्तियां खाता और अगर इमलियां लगी होती तो पिता जी से जिदकर के दो चार तुड़वा लेता था। धीरे धीरे पढ़ाई के दौरान स्कूल की ऊपरी कक्षाओं में पहुुंच गया तो गांव भी जाना कुछ कम हो गया। पिता जी पहले सरकारी अध्यापक थे लेकिन बाद में उन्होंने नौकरी छोड़कर अपना व्यवसाय शुरू कर लिया। लेकिन मैंने जबसे होश संभाला तब से मैंने पिता जी को व्यवसाय करते ही देखा है जो कि आज भी अनवरत जारी है।
शायद समय और जरूरी सुख सुविधाओ के अभाव के कारण मेरे बाबा और दादी अम्मा को भी पिता जी ने गांव से शहर में बुला लिया। वैसे मेरे बाबा, दादी अम्मा और पिताजी तो गांव जाया करते थे लेकिन मैं किसी कार्यक्रम में ही ले जाया जाता था। प्रमुख कारण सिर्फ स्कूल होता था। बैलगाड़ी...साइकिल...और अब स्कूटर। मेरे पिता जी के पास प्रिया स्कूटर था। मैं कुछ बड़ा हुआ था सो उनको पीछे बिठाकर चलाने लगा था। जब गांव जाता तो हमेशा की भांति उन्हीं खेतों की ओर जाता था जहां पर कभी बाबा के साथ बैलगाड़ी पर जाया करता था। उसी पेड़ के नीचे अब मै स्कूटर लगाता था और आराम से खेतों से वापस आ जाता था। स्कूटर से मोटरसाइकिल आई। तब तक मैं भी जवान हो गया था।
कुछ साल पहले मैं अपने गांव एक लंबे समय बाद शायद आठ नौ साल बाद गया। इस बार मैं कार पर था। मैंने कार को उस जगह पर लगाया जहां पर एक दीमक लगा पेड़ था। पेड़ पूरी तरह से सूख चुका था। छांव के लिए उसकी पत्तियां भी नहीं थी। कुछ बच्चों ने उसकी जड़ के पास एक दो गाय बांध रखी थी। पूरा खेत घूम आया। पिता जी भी थे। वापस आते हुए मैंने उनसे पूछ लिया...पिता जी यहां पर एक इमली का पेड़ हुआ करता था। उन्होंने इशारा करते हुए कहा कि यही तो है सामने...जहां कार खड़ी की है। मैंने उसकी ओर देखा...एकबारबी उस निर्जीव पेड़ के लिए आंखे आंखे भर आईं। मन में वह सालों पहले के दृश्य हल्के हल्के से सजीव हो उठे। जब इसी पेड़ की छांव में मैं बैठकर पत्तियां खाता था। बाबा के साथ। अब न तो बाबा है और न वह बैलगाड़ी। एक इमली का पेड़ था वह भी अपने अस्तित्व के समापन की ओर है...।

हेलो दोस्तों

नमस्कार दोस्तों। एक लंबे अरसे बाद आपसे मुखातिब हो रहा हूं। व्यस्तता के चलते कुछ लिख नहीं सका। इस दौरान मैंने व्यावसायिक होने का एक और प्रमाण दिया। एक बार और संस्थान बदल दिया। वापस उसी अखबार को ज्वाइन किया जहां से चंडीगढ़में शुरुआत की थी। सबकुछ पुराना सा ही लगा। क्योंकि बहुत से लोग अभी भी पुराने थे। इसलिए रमने में जरा भी वक्त नहीं लगा। उसी तरह से काम कर रहा हूूं। कभी स्कोर तो कभी मिसिंग...। जिंदगी...गोइंग आन...