बात बीते हफ्ते की है। शोएब मलिक केकिसी दोस्त ने पाकिस्तान से सानिया मिर्जा को फोन किया और पूछ लिया...भाभी कैसी हो...। बस सानिया के जेहन में शायद सिरहन दौड़ गई। उन्होंने इस बात को मीडिया से शेयर किया कि किसी ने उनको भाभी कहा है। यह सुनना उनके लिए बड़ा अजीब था क्योंकि वह हमेशा सानिया...सानिया सुनने की आदी थी। इस बात को मीडिया भी ले उड़ा...और लगा दी पेज वन पर एंकर टाइप की खबर...'सानिया नहीं, सानिया भाभीÓ। लोगों ने खूब चटकारे ले ले कर खबरें पढ़ी।
अब चूंकि ये सानिया थी और इनको पड़ोसी मुल्क के किसी अपने ने भाभी कहा था सो खबर बननी भी थी। पता नहीं इसमें किसी को हैरत हुई या नहीं लेकिन मुझे इस पर उतनी ही हैरत हुई जितनी शायद सानिया को हुई होगी। होनी भी लाजिमी थी। क्योंकि हमारे यहां बेटियों की परवरिश उस अंदाज में की जाती है कि कभी उनको कोई भाभी, चाची, आंटी या फिर मामी पुकारेगा तो उनको झटका न लगे। कोई बड़े कुनबे वाला छोटा सा बच्चा दादी भी कह सकता है, लेकिन ये सब सुनने में बहुत अजीब नहीं लगता। अब चूंकि सानिया, सानिया मिर्जा हैं...इसलिए उनको ये शब्द बड़ा अटपटा लगा।
मुझे एक वाकिया याद है। मेरे एक रिश्तेदार हैं। प्रदेश की बड़ी शख्सियत हैं और लखनऊ में रहते हैं। उनकी बहन की शादी हुई। शादी के बाद जब वह पहली बार बहन के घर गए तो उनके आने की सूचना किसी ने ऐसे दी...भाभी...देखो नरेश भैया आए हैं। बस नरेश भैया का माथा ठनक गया...खैर रुककर जब वापस घर आए तो अपनी मां से बोले...महतारी जानेउ...ब्ट्यिावा केर घरइ गोमती नगर गएन रहैं...बिट्यावा केर देउर भाभी कहिके बुलाइस...हमार तबहीं माथा ठनक गवा...कि सार हमरी बहन का कौनो अइसउ बुलाई सकत है। खैर उनकी मां ने बताया कि बेटा ऐसा तुमको लगा है लेकिन बेटी को नहीं लगता है। क्योंकि उसको हमेशा से पता था कि एक दिन कोई उसको ऐसे पुकारेगा ही।
अंत में यही कहूंगा कि सानिया सानिया हैं। इसलिए उनको इसका कभी अहसास नहीं हुआ होगा कि कभी उनकी भी रिश्ते की डोर बंधेगी। कोई उनको भी किसी रिश्ते के नाम से पुकारेगा...भाभी...फुफ्फी...खाला...अम्मी...
Sunday, April 25, 2010
Sunday, April 11, 2010
चचुआ
मैं रोजना की तरह शाम को दफ्तर में था। तभी हमारे मोबाइल फोन पर म्यूजिक बजने लगा। उठाकर देखा तो तो शहर से चचुआ का फोन था। चचुआ रिटायर्ड 'मास्साबÓ हैं। हैं तो बड़े भले आदमी लेकिन मीन-मेख खूब निकालते हैं। मसलन अगर आप उनसे कहो कि चचुआ ये आपकी पैंट शर्ट बहुत अच्छी सिली है। कहां से सिलवाई। फौरन जबाव देते हैं...क्या खाक अच्छी सिली है। देखो तो...ससुरे ने पैंट में सामने दो दो प्लेटें बना दी हैं। कतई लौंडा बना दिया है मुझे टेलर मास्टर ने। जब तक हम कुछ कहते कहते तब तक दो चार गाली दे मारी टेलर मास्टर को। बेचारा टेलर भी...। अच्छा...चचुआ तुनक मिजाज हैं इसलिए उनको मोहल्ले के लौंडे छेड़ते भी बहुत हैं। चचुआ जब कभी बालों में खिजाब लगा के निकलते हैं तो पूछो मत...कम बालों वाली मूछों पर धर धर ताव देते हैं...बालों में कंघी भी करते हैं...फिर इतना देख मोहल्ले के लौंडे कहीं रुकने वाले...कह ही देते चचुआ...मिथुन चक्रवर्ती लग रहे हो...और इतना कह कर लड़के भाग जाते...बस चचुआ को मिल गया मौका गरियाने का...ये...ये...रम गुलमवा का लौंडा...रुक...रुक और राम गुलाम के लड़के को दौड़ा लेते थे। तब मैं भी छोटा था...बदमाशी करने में पीछे कतई नहीं रहता था। चचुआ को भी छेड़ देता था लेकिन गुपचुप तरीकेसे। एक बार तो किसी की शादी में चचुआ की नाक में किसी ने जलेबी घुसेड़ दी। बस फिर क्या था छींकते छींकते चचुआ की हालत खराब...जब छींकने से फुरसत मिली तो लगे गरियाने...तेरी...। शादी में माहौल गरम हो गया। होना भी था...भई जिसकी नाक में जलेबी डालोगे तो वह भड़केगा ही...खैर...चचुआ की कहांनियां तो बहुत हैं। सुनाऊंगा तो पूरी किताब बन जाएगी। खैर, चचुआ का मैने फोन उठाया...दुआ सलाम हुई...फिर कहने लगे कि बेटा...अब मैं कब आऊं डॉक्टर को दिखाने...चार महीने बाद आने को कहा था...चार महीने होने को हैं...क्या टिकट करवा लूं। मैंने हां में जबाव दिया और फोन कट गया। कुछ देर तक मैं चुपचाप रहा फिर ऑफिस से बाहर निकल आया...सोचने लगा कि ये वहीं चचुआ हैं जो कभी बहुत तुनक मिजाज हुआ करते थे। बात बात पर गरियाते रहते थे। आज...बोलने में उनकी आवाज लडख़ड़ाती है। चलने के लिए किसी का सहारा लेना पड़ता है। बाल सफेद हैं लेकिन उनमे खिजाब नहीं है। बीमारी ने उनको तोड़कर रख दिया है। घर से बाहर निकलना भी अब उनकेलिए मुश्किल है...। आज उनको परेशान करने वाले मोहल्ले के लौंडे देश से लेकर विदेश में अच्छी अच्छी जगहों पर हैं। जिसको भी पता चलता है...वह चचुआ के इलाज के लिए हर संभव मदद करता है। करे भी क्यों न...चचुआ गरियाते थे...लेकिन प्यार भी करते थे...मैं भी उसी मदद करने वालों की कड़ी का एक हिस्सा बन उनका इलाज कराने का छोटा सा प्रयत्न करता हूं। उनका पीजीआई से इलाज चल रहा है। मेरे अच्छे डॉक्टर मित्र हैं जो चचुआ को अपना चचुआ समझ कर इलाज करते हैं।
Sunday, April 4, 2010
लद्दाख की ताशी
ताशी नाम था उसका। उम्र यही कोई दस बारह साल की रही होगी। लद्दाख के कोई बड़ी दूर दराज इलाके से चंडीगढ़ पीजीआई में इलाज कराने के लिए पहुंची थी। घरवालों का साथ नहीं था सो इलाके के किसी लामा ने व्यवस्था की थी उसका इलाज कराने की। उसको ब्लड कैंसर था।
मुझे एक दिन पीजीआई के पुअर पेशेंट सेल से फोन आया कि एक ऐसी लड़की है जिसको मदद की जरूरत है। अगर अखबार में उसकी मदद के बारें कुछ भी आ जाएगा तो शायद उसका इलाज हो सकेगा। फोन सुनने के बाद मैं ताशी से मिलने पहुंचा। उसके साथ दो अन्य लड़कियां उसी के क्षेत्र से आई थी। पद्मा और शीइंग नाम था उनका। मैंने ताशी और उसके साथ आई दोनों लड़कियों से बात की। अगले दिन अखबार में मदद की खबर प्रकाशित की तो शहर के एक एनजीओ ने आगे बढ़ते हुए ताशी का इलाज ताउम्र कराने का वायदा कर दिया। उसका इलाज शुरू हो गया। मैं भी आते जाते उससे कभी कभार मिल लेता था। उसके चेहरे पर बहुत ही मासूमियत थी। जब भी मैं उससे मिलता तो वह हमेशा मुझसे पूछती कि भैया...मैंं ठीक हो जाऊंगी न...मैं भी उसको पूरे विश्वास के दिलासा दिलाता था कि हां...तू बिल्कुल ठीक हो जाएगी। इतना सुनने के बाद वह मुस्कुरा देती थी। फिर कहती थी कि जब मैं ठीक हो जाऊं तो आप मेंरे गांव आना। वहां मैं आपको गाना सुनाऊंगी। फिर वह पता नहीं लद्दाखी भाषा में कोई लोकगीत गुनगुनाने लगती। करीब दो महीने तक दाखिल रहने के बाद डॉक्टरों ने उसको घर भेज दिया।
उसको गए हुए करीब छह सात महीने हो गए थे। उसकी कोई खोज खबर नहीं थी। तभी मैंने उस एनजीओ को फोन करके ताशी का हाल लेने के उसका कोई कांटेक्ट नंबर मांगा। नंबर लेने के दो-तीन दिन बाद मैंने जब फोन कर ताशी का हाल लिया तो पता चला कि...वह अब इस दुनिया में नहीं रही। फोन करने वाले शख्स को जब मैंने अपना परिचय दिया तो उसने बस इतना ही कहा...आप मुझे बाद में फोन करना ...मैं ताशी के अंतिम संस्कार में ही खड़ा हूं।
मैं स्तब्ध रह गया...सोचने लगा कि...वही ताशी...जिसने ठीक होने के बाद न जाने क्या क्या सपने देखे थे...आज लद्दाख के किसी इलाके में उसके सपने दफन हो रहे हैं...उसे गाना गाना अच्छा लगता था...आज के बाद उसकी आवाज उन बर्फीले इलाकों में कभी नहीं गूजेंगी...उसकी छोटी छोटी आंखों के हजारों सपने बिखर गए होंगे...मन में बार बार यही आ रहा था कि पता नहीं उसको हमारी याद होगी भी या नहीं...लेकिन न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि एक अंजान रिश्ता आज हमेशा हमेशा के लिए टूट गया...
मुझे एक दिन पीजीआई के पुअर पेशेंट सेल से फोन आया कि एक ऐसी लड़की है जिसको मदद की जरूरत है। अगर अखबार में उसकी मदद के बारें कुछ भी आ जाएगा तो शायद उसका इलाज हो सकेगा। फोन सुनने के बाद मैं ताशी से मिलने पहुंचा। उसके साथ दो अन्य लड़कियां उसी के क्षेत्र से आई थी। पद्मा और शीइंग नाम था उनका। मैंने ताशी और उसके साथ आई दोनों लड़कियों से बात की। अगले दिन अखबार में मदद की खबर प्रकाशित की तो शहर के एक एनजीओ ने आगे बढ़ते हुए ताशी का इलाज ताउम्र कराने का वायदा कर दिया। उसका इलाज शुरू हो गया। मैं भी आते जाते उससे कभी कभार मिल लेता था। उसके चेहरे पर बहुत ही मासूमियत थी। जब भी मैं उससे मिलता तो वह हमेशा मुझसे पूछती कि भैया...मैंं ठीक हो जाऊंगी न...मैं भी उसको पूरे विश्वास के दिलासा दिलाता था कि हां...तू बिल्कुल ठीक हो जाएगी। इतना सुनने के बाद वह मुस्कुरा देती थी। फिर कहती थी कि जब मैं ठीक हो जाऊं तो आप मेंरे गांव आना। वहां मैं आपको गाना सुनाऊंगी। फिर वह पता नहीं लद्दाखी भाषा में कोई लोकगीत गुनगुनाने लगती। करीब दो महीने तक दाखिल रहने के बाद डॉक्टरों ने उसको घर भेज दिया।
उसको गए हुए करीब छह सात महीने हो गए थे। उसकी कोई खोज खबर नहीं थी। तभी मैंने उस एनजीओ को फोन करके ताशी का हाल लेने के उसका कोई कांटेक्ट नंबर मांगा। नंबर लेने के दो-तीन दिन बाद मैंने जब फोन कर ताशी का हाल लिया तो पता चला कि...वह अब इस दुनिया में नहीं रही। फोन करने वाले शख्स को जब मैंने अपना परिचय दिया तो उसने बस इतना ही कहा...आप मुझे बाद में फोन करना ...मैं ताशी के अंतिम संस्कार में ही खड़ा हूं।
मैं स्तब्ध रह गया...सोचने लगा कि...वही ताशी...जिसने ठीक होने के बाद न जाने क्या क्या सपने देखे थे...आज लद्दाख के किसी इलाके में उसके सपने दफन हो रहे हैं...उसे गाना गाना अच्छा लगता था...आज के बाद उसकी आवाज उन बर्फीले इलाकों में कभी नहीं गूजेंगी...उसकी छोटी छोटी आंखों के हजारों सपने बिखर गए होंगे...मन में बार बार यही आ रहा था कि पता नहीं उसको हमारी याद होगी भी या नहीं...लेकिन न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि एक अंजान रिश्ता आज हमेशा हमेशा के लिए टूट गया...
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