Sunday, October 8, 2017

...और चांद अंगड़ाई लेता हुआ निकल आया

(चौदह साल हो गए इसको :)
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ये बात 2003 की है। भोर के पांच बज रहे थे। और मेरी ट्रेन कालका स्टेशन पर पहुंच रही थी। हम तकरीबन चालीस लोग थे। सभी स्नातक अंतिम वर्ष के भूगोल के छात्र थे। स्टडी टूर पर हिमाचल प्रदेश जाना था। सो श्मिला के लिए कालका से ट्वाय ट्रेन पकडऩी थी। एक अजब सा उल्लास था। होता भी क्यों न। इतने सारे दोस्तों के साथ पहली बार घूमने जो निकले थे।सभी साथी स्टेशन पर खड़ी छोटी ट्रेन में सवार हुए। तकरीबन साढ़े आठ बजे टे्रन एक लंबी सीटी के साथ चल पड़ी। और शुरू हुआ ऐसा सफर जो आज तक नहीं भूला, न ही कभी भूल पाऊंगा। सब कुछ नया नया सा था। ये बात दीगर है जो वादियां, नजारे, गांव, शहर, टे्रनें, लोग और बोलचाल 2003 में एकदम अलग और नई सी लग रही थी वह 2006 से अपनी सी लगने लगी थी। क्योंकि मेरी किस्मत मुझे चंडीगढ़ में जुनून के लिए खींच चलाई थी। मैं बताता चलूं कि पत्रकारिता मेरा जुनून ही है। खैर...ट्रेन में मैंं अपने दोस्तों के साथ बैठा था। उनमें कुछ लड़के थे और कुछ लड़कियां। मस्ती हो रही थी। मेरे सामने वाली सीट पर एक बुजुर्ग महिला भी बैठीं थी। उनके साथ में यही कोई आठ दस साल का शायद उनका पोता रहा होगा वह भी बैठा था। वह दादी हम लोगों की शैतानियों को देखती और फिर मुस्कुराने लगती। वैसे तो शिमला तक का अमूमन सफर इस ट्रेन से पांच घंटे का होता है। चूंकि ये हम लोगों का पहला सफर था शायद इसीलिए बहुत लंबा हो गया। ट्वॉय ट्रेन कालका से चलकर इस रूट पर पडऩे वाले सनवारा स्टेशन पर जाकर रुक गई। समय यही कोई उस वक्त साढ़े दस बजे का रहा होगा। ट्रेन कछ देर तक नहीं चली। जानकारी लेने के बाद पता चला कि ट्रेन का इंजन खराब हो गया है। शिमला से दूसरा इंजन आएगा तभी ट्रेन चलेगी। हम लोगों ने कहा कि चलो...बहुत ही अच्छा है। पहाड़ों के बीच रुककर खूब मस्ती करेंगे। हम लोगों ने की भी खूब मस्ती। छह घंटे गुजर गए यानीकि साढ़े चार बजने को हो गए। तब तक इंजन नहीं आया था। अक्टूबर का महीना था सो हल्की सी ठंड भी होने लगी थी। कुछ समय बाद इंजन भी आ गया और ट्रेन एक बार फिर चल पड़ी। उसी सीट पर मैं जाकर बैठ गया जहां पर पहले बैठा था। सामने वहीं दादी बैठी हुई थी। उनके पास कुछ सामान था। वह बार बार अपने पास रखे सामान को सहेज लेती थी क्योंकि ट्रेन के हिलने डुलने पर वह इधर उधर हो जाता था। मैने उनसे पूछा कि दादी अगर इसमें कुछ टूटने वाला सामान हो तो मेरी सीट पर रख दीजिए मैं संभाल लूंगा। तो उन्होंने कहा कि बेटा...कुछ टूटने वाला नहीं है। इसमें तो मेरी बेटी की करवा चौथ की होने वाली पूजा का सामान है। जो कि मुझे उसके घर पर देना है। मेरी बेटी का पहला करवा चौथ है। पूजा का सामान मां के घर से ही जाता है। सो मैं लेके जा रही है। मैने उनकी बात को सुनकर सिर्फ अच्छा कह कर बाते करने मे लग गया। शाम के सात बज रहे थे। हम लोगों की ट्रेन शिमला नहीं पहुंची थी। पता चला कि अभी पहुंचते हुए एक से सवा घंटा और लग जाएगा। दादी ने भी पूछा कि बेटा कितना समय और लगेगा तो मैने बताया सवा घंटे। इतना सुनकर उन्होंने ट्रेन से बाहर की ओर झांका। पहाडों को अंधेरे ने अपने आगोश में ले लिया था। कोई गांव आता था तो उसकी लाइटें ही टिमटिमाती हुई नजर आती थी। वह बार बार कुछ खास देखने की कोशिश कर रहीं थी। मैने फिर उनसे कहा कि हम लोग हैं आपके साथ इसलिए रात को परेशान होने की जरूरत नहीं है। तो उन्होंने बताया कि...बेटा मैं अपने लिए परेशान नहीं हो रही हूं...मैं तो अपनी उस बेटी के लिए परेशान हूं...जिसका आज पहला करवा चौथ का व्रत है...पौर पूजा का सारा सामान मेेरे पास है। चांद निकलने को है...पता नहीं कैसे होगी मेरी बेटी की पूजा...बस मैं यही बार बार देख रही हूं कि कहीं चांद तो नहीं निकल आया। उनका इतना सुनना वहां मौजूद सभी लोग ने बाहर से चांद को देखने की कोशिश की और कहा कि दादी अभी चांद नहीं निकला है। ट्रेन तकरीबन सवा आठ बजे शिमला स्टेशन पर पहुंची। ठंड मानों शरीर को चीर रही हो। हम सभी लोग ट्रेन से उतरे। अपने सामान के साथ उन दादी का सामान भी स्टेशन पर उतार कर बाहर लेकर आए। एक बार फिर से आसमान की ओर देखा तो चांद नहीं निकला था...उनका दामाद दादी को लेने स्टेशन पर आया था। उससे परिचय भी हुआ...दादी अपनी बेटी के घर की ओर चल पड़ी...और हम लोग अपनी उस ठिकाने की ओर जहां पर रात बसर करनी थी...मेरा होटल थोड़ा ऊंचाई पर था...ऊपर चढ़ ही रहा था तो देखा कि आसमान में पूरब दिशा से हल्की सी रोशनी हो रही है....ये रोशनी उस अंगड़ाई लेते हुए चांद की थी जो आज अनगिनत सुहागिनों को दीदार कराने के लिए निकल चुका था...चांद को देखकर बस दिल में एक ही बात रह रह कर कौंध रही थी कि पता नहींं वह दादी कहां तक पहुंची होंगी...घर पहुंच गईं होंगी या उनको भी हमारी तरह हल्की सी रोशनी के साथ चांद निकलता हुआ दिखा होगा......।आज इस घटना को छह बरस होने को हैं। मैं अब अक्सर उन्ही राहों से गुजरता हूं...जहां पर छह साल पहले जाते हुए कुछ एक दादी की व्यथा को महसूस किया था....तो बरबस ही वो बूढ़ी दादी का चेहरा सामने आ जाता है और रह रह कर सिर्फ यही सोंचने को मजबूर हो जाता हूं कि...उनकी बेटी की पहली करवा चौथ की पूजा कैसे हुई होगी....चांद को देखकर या..........................!

Sunday, April 30, 2017

...लद्दाख की भूरी पहाड़ियों पर जब चांद निकला


अब शाम ढलने लगी थी। लद्दाख की भूरी पहाड़ियों पर अंधेरा छाने को था। इसी के साथ ठंड भी बढ़ने लगी थी और हमारी बस का ड्राइवर न जाने कहां गुम था। एक एक करके हेमिस मॉनेस्ट्री से गाड़ियां निकलने लगी। अकबर और रजनी से गुजारिश की कि…भई…अब तुम लोग ही जाओ और बस ड्राइवर को ढूंढ कर लाओ। भगवान जाने कैसे इतनी भीड़ में मंगोलियन शक्ल वाला एक आदमी दोनों जने ले आए। अकबर बोला…ले आए ड्राइवर को। चलो भई बस में चढ़ जाओ। ज्यादातर लोग तो बस के अंदर चढ़े लेकिन कोलकाता के अनिर्बान, पटना के सुमित और बंगलूरू के सुदर्शन समेत कुछ और लोग बस की छत पर चढ़ गए।

बस अब हिचकोले खाती हुई काली सड़क पर लेह शहर की ओर दौड़ी जा रही थी। सड़क के साथ साथ नीचे की ओर बह रही इंडस रिवर और उसके पीछे पहाड़ियों में सूरज के अस्त होने की लालिमा का जो संगम था वह देखते ही बनता था। मेरे आगे वाली सीट पर शायदा जी थी।  शायदा जी इंडस नदी की उपयोगिता पर प्रकाश डालती रहीं और हममें से ज्यादातर लोग उनके ज्ञान का अर्जन करते रहे। तभी बस की छत से तेज आवाजे आने लगी। हम लोग डर गए न जाने क्या हुआ। बस रोकी गई तो पता चला जो साथी बस की छत पर लद्दाख को एंज्वॉय कर रहे थे वह जीरो डिग्री के करीब पहुंचने वाले पारे में कड़कड़ाने लगे थे और नीचे आने के लिए बेताब थे। सभी लोगों की ठंड के चलते पूरी तरह से बैंड बज चुकी थी। अब सब बस के अंदर थे और एक साथ आवाज उठी कि कहीं पर चाय पी जाए।
कुछ देर में हम लोग एक वीराने इलाके में बहुत ही छोटी सी चाय की दुकान पर थे। दुकान में घुसते ही मैगी से लेकर चिप्स और चाय पर हमला शुरू हुआ जो करीब आधे घंटे तक चला। चाय पीते पीते ही पता चला कि जो शख्स चाय बना रहे थे वो लद्दाखी सिनेमा के स्टार हैं। कई सिनेमा में काम कर चुके हैं। उनकी कई फिल्मों के तो पोस्टर भी उनकी दुकान में लगे थे। फिल्मी दुकानदार से बात हो रही ही थी कि पीछे से एक तेज अवाज आई…बाहर नहीं निकलेगा क्या तुम लोग…अरे उधर भी तो देखेगा…ये आवाज राहुल की थी। वो करीब 12 हजार फीट की ऊंचाई से निकलने वाले चांद को दिखाने को बेताब था। एक पहाड़ी की ओट में सूरज सी रोशनी के साथ लखनऊ की धरती से दिखने वाले चांद की तुलना में कई गुना बड़ा चांद निकल रहा था। ये वास्तव में एक अद्भुत नजारा था। मैंने ऐसा ही एक बार चांद लगभग इतनी ही ऊंचाई से सिक्किम के नाथूला में निकलते देखा था। इतनी ऊंचाई से चांद को देखना और देखते रहना निश्चित ही सबके लिए एक अनोखा अनुभव था।
तभी एक आवाज आई कि चलो भई…लेह भी पहुंचना है। कल की भी कुछ तैयारी की जाए। अब सवाल था कि कल दोबारा हेमिस जाया जाए या फिर पैंगॉंग लेक। माइनस डिग्री के सत्रह हजार फीट पर बने चांगला पास को पार करते हुए करीब 14 हजार फीट की ऊंचाई पर नीले पानी की दुनिया की सबसे खूबसूरत सी झील पर कौन नहीं पहुंचना चाहेगा। ज्यादातर लोगों ने हां की। बस फिर क्या था। बस में ही तैयारी शुरू हुई पैंगॉंग लेक पर जाने की। बजट…यही मुद्दा था। कितना रुपया लगेगा और उसको बस में इकट्ठा कौन करेगा। सर्वसम्मति से एकध्वनि में आशीष तिवारी यानीकि मैं, मेरा नाम पास हो गया कि मैं कंडक्टर बनकर सबसे रुपये कलेक्ट करूं और फिर उसी रात को अगली सुबह के लिए टैक्सी का इंतजाम करूं। बस फिर क्या था। यूपी की सरकारी बसों में खूब सफर किया है मैंने। कान पर चढ़ाया पेन और हाथ में लिया कागज…इकट्ठे होने लगे रुपये। चंद मिनट में तकरीबन 24 हजार रुपया हाथ् में।
इधर हम लोगों के पैंगॉंग लेक पर जाने की तैयारियां हो रहीं थी वहीं बस में तीन लोग और भी थे जो हमारे ग्रुप से नहीं थे और शायद जल्दी में थे उनको देर हो रही थी। हम लोग मस्ती के मूड में थे। गाना बजाना खाना पीना करते हुए रुकते रुकाते चल रहे थे। आखिरकार लेह शहर में जब एक बार बस और रुकी तो जो उन लोगों के सब्र का बांध टूट ही गया। बड़ा नाराज हुए वो। मुझसे भी। खूबसूरत सी शाम और मनमोहक नजारों के साथ कट रही शाम में तीखी नोझोंक में मजा थोड़ा किरकिरा तो हुआ लेकिन मामला जैसे तैसे रफा दफा हो गया।
खैर, रात के नौ बजने वाले थे। लेह शहर का एक तबका तो शायद नींद में था लेकिन मुख्य सड़कों की बाजारें कुछ हद तक गुलजार थीं। सामने एक टैक्सी वाले का बोर्ड देखकर मैं और अकबर वहां पहुंचे। उसने पैंगॉंग लेक तक दो ट्रैवलर का जितना किराया बताया वो बहुत ज्यादा था। टैक्सी वाले का नाम दानिश खान था। अकबर भाई ने तुरंत टांका भिंड़ाया और खुद को अकबर खान टाइपस जैसा बताते हुए सौदा पटा लिया। एडवांस दिया गया और सुबह पांच बजे दो गाड़ियों को हम लोगों के होटेल्स में


भेजेन को कहा गया।
बस वाले ने भी हम लोगों को उतारा तो कुछ लोग होटेल्स् तो कुछ दवा की दुकानों की ओर भागे। किसी को ऑक्सीजन सिलेंडर चाहिए था इतनी ऊंचाई पर जाने के लिए तो किसी को कुछ और दवाएं। कुछ को सिलेंडर मिले तो कुछ ने हिम्मत दिखाते हुए नहीं लिए। 14 हजार फीट की ऊंचाई पर बनी पैंगॉंग लेक पर ऑक्सीजन बहुत कम होती है। खास बात यह है कि लेक तक पहुंचने के लिए दुनिया के सबसे ऊंचे ग्लेशियर में से एक चांगला पास होते हुए ही जाना होता है। जो तकरीबन सत्रह हजार फीट की ऊंचाई पर हैं। लोग वहां रुकते हैं पारा अक्सर ही माइनस में रहता है। सार्दियों में तो यहां पर पारा माइनस तीस डिग्री तक पर पहुंच जाता है।
फिलहाल थोड़ी देर में सभी लोग अपने अपने होटेल्स पहुंचे। रास्ते में लखनऊ के नंबर वाली मारुती 800 एक कार को देखकर अकबर भाई थोड़ा इमोशनल हो गए कि यार लद्दाख में भी लखनऊ की कार। थोड़ा प्राउड भी हुआ कि लखनउव्वे कहीं भी पहुंच जाते हैं...

क्रमश…



Wednesday, March 29, 2017