Tuesday, August 2, 2011

जिंदू...अरे ओ जिंदू...कहां हैं तू...

बात शायद सन निन्यानवे की है। रात का आधा पहर बीतने को था...पहाड़ पर सन्नाटा था...अगर कोई आवाज उस सन्नाटे को चीरती भी थी तो वह सिर्फ कुछ जानवरों की आवाजें ही थीं। मैं बढ़ा चला जा रहा था। उस ओर जहां पर उसने मुझसे मिलने को कहा था। तकरीबन शहर से तीन किलोमीटर दूर मैं उसकी बताई हुई जगह पर पहुंचा। देखा कि पहाड़ी के ऊपर एक छोटी सी झोपड़ीनुमा कोई जगह हैं जहां पर लाइट टिमटिमा रही है। मैं उस ओर बढ़ा। तभी किसी ने मेरा हाथ झट से पकड़ लिया...मैं पीछे मुड़ा तो देखा...कि तकरीबन नौ साल का एक छोटा सा लड़का खड़ा था। मैंने उसको देखा और पूछा...तुम...तुम यहां हो..तुमने तो कहा था कि घर पर आना। सो मैं उधर ही जा रहा था। जिंदगी नाम था उसका...पता नहीं कैसा नाम रखा था उसके घर वालों ने...जिंदगी...खैर मैने कहा...लेकिन जिंदू तुझे तो इस वक्त हर हाल में घर में होना चाहिए था...फिर कौन होगा घर में...उसने कहा कि कोई नहीं...दादी ही हैं...उसने मेरी उंगली पकड़ी ओर मुझे अपने घर की ओर लेकर चल पड़ा।
एक कमरा उसके पीछे एक छोटा सा कमरा। शायद वह कमरा खाना बनाने के आता था। लेकिन देखने पर ऐसा लगा कि यहां पर सालों से चूल्हा ही नहीं जला। एक लकड़ी का तखत था जो शायद आज कल...आज कल में टूट सकता था। उस पर करीब पैंसठ साल की एक बूढ़ी बुजुर्ग महिला लेटी थी। लाचारी और गरीबी ने शायद उम्र को और बढ़ा दिया था। खैर, मुझे देखकर उठने की कोशिश की लेकिन मैंने उनको लिटा दिया। खरखराहट भरी आवाज में कहा कि...जिंदू...तू अब आ पाया है। मैंने तो खाना भी अभी नहीं खाया है...उसने अपने झोले से एक कपड़ा निकाला उसमें कुछ रोटियां थी। एक कटोरे जैसा बर्तन था उसमें दाल और सब्जी मिक्स थी। जिंदू झट से गया और एक साफ कटोरी तथा थाली ले आया। जिसमें उसने दो रोटी और थोडी सी मिक्स वाली दाल सब्जी डाल कर मेरे सामने परोस दी। और खुद कपड़े से रोटियों को निकाल पर अपनी दादी के तखत पर बैठ कर उनको खिलाने लगा। महज नौ साल के मासूम जिंदू को देखकर उसकी मासूमियत का अंदाजा तो लग रहा था लेकिन शायद जिम्मेदारियों ने उसको कब का बड़ा और मेच्योर बना दिया था। मुझसे बोला...भैया...आप आराम से खाइये में दादी के साथ खाकर इनको दवा भी खिलाऊंगा। मैंने हां में सिर हिलाकर रोटी का एक टुकड़ा और मुंह में डाला।
जिंदू...यही वही लड़का है जब मैं पहली बार नैनीताल गया था तो बस से उतरने के बाद सबसे पहले मिला था। एक बैग था मेरे पास उसको उसने पकड़ कर कहा था..भैया...आइये मैं आपको होटल दिखलाता हूं...बहुत अच्छा होटल है...रेट भी वाजिब हैं...कंबल भी मिलेगा...और चाय बनाने वाली मशीन भी कमरे होगी...और न जाने कौन कौन सी बाते होटल के बारे में बता रहा था। वहां पर ऐसे बहुत से लोग थे अपने कमीशन के चक्कर में मुझको होटल में ले जाने के लिए आगे पीछे लगे थे लेकिन मैंने उससे पूछा...चलो कहां है आपका होटल। मॉल रोड से ऊपर बिड़ला विद्या मंदिर को जाने वाले रास्ते पर लेकर वह चला। रास्ते में बातचीत भी हुई। बोला...भैया इस वक्त तो ऑफ सीजन है न...इसलिए चार सौ रुपये में कमरा मिल जाएगा...वरना सीजन में तो इन्हीं कमरों के दो से तीन हजार रुपये तक वसूले जाते हैं। मैंने भी रास्ता काटने के लिए पूछ लिया कि तुम्हे कितने मिलते हैं...यह सुनकर वह तुरंत बोला...मुझे...मुझे कभी कभार ही मिलते हैं। लेकिन खाना दोनों समय का मिल जाता है। मेरी दादी के लिए भी ये लोग खाना दे देते हैं। इसलिए मैं बस स्टैंड पर हर आने वाले को यहां लाने की कोशिश करता हूं। इतनी बातों में होटल भी आ गया था। उसने हमें लेक की ओर का कमरा दिलवाया। मुझे उसकी बातें सुनकर बहुत अच्छा लगा सो मैंने उसको अपने कमरे में बुलवाया। पूछा तुम्हारा नाम क्या है...बोला घर में दादी जिंदू कहती है...वैसे स्कूल का नाम जिंदगी है। मैंने पूछा कहां पढ़ते हो...तो उसने कहा कि कहीं नहीं...पहले पढ़ता था...और इतना कहते हुए वह कमरे से भाग गया। शायद किसी और कस्टमर को लाने के लिए बस स्टैंड पर। मैं भी नहा धोकर अपने काम के लिए चला गया। लौटकर शाम को आया तो देखा कि जिंदू...होटल के रिसेप्शन पर खड़ा था। मैंने उससे हेलो की और वहीं पड़े दो सोफों में से एक पर खुद बैठ गया और एक पर उसे बिठाया। इस बार बड़ी तसल्लीबक्श उससे बात की। उसने बताया कि उसको पता नहीं कि मां बाप क्या होते हैं। जब से जानने वाला हुआ हूं तब से दादी को ही देखा है। पहले वह भी मॉल रोड की दुकानों में साफ सफाई का काम करती थी अब बीमारी से वह सब छूट गया है। सारा बोझ उस नन्हीं सी जान पर आ गया है। दवा से लेकर खाने तक का इंतजाम उसको ही करना पड़ता है। उससे बात करके और मिलकर बहुत अच्छा लगा मुझे। उसी दिन मुझे वापस भी आना था सो रात की बस पर वह मुझे चढ़ाने के लिए भी आया। मैंने उसको सौ रुपये निकाले और दिए। पहले तो उसने लेने से मना कर दिया लेकिन काफी जिद करने पर उसने रुपये रख लिए। बस चल पड़ी। लालकुंआ पहुंचा और अपनी ट्रेन में बैठ गया। पांच घंटे के सफर के बाद मैं अपने घर पहुंच गया। तकरीबन तीन बजे के करीब मैं घर पहुुंचा और सोने की तैयारी करने लगा। नींद ही नहीं आई। उस बच्चे के बारे में सोचता रहा। खैर सुबह हुई और मैं उठा। उन दिनों मैं कॉलेज में पढ़ता था। कॉलेज पहुंचा और अपने दोस्तों में मगन हो गया। धीरे धीरे एक महीना, दो महीने, चार महीने और छह महीने बीतते बीतते दो साल हो गए। एक दिन मुझे जिंदगी की याद आई तो मैंने नैनीताल के उस होटल में फोन मिलाया। मैंने पूछा कि एक आपके यहां लड़का काम करता है जिंदगी...क्या बात हो जाएगी उससे। उधर से जवाब आया कि वह तो पिछले तीन महीने से नहीं आ रहा है। उसकी दादी की तबियत ज्यादा खराब थी तो उसने बस स्टैंड के पास एक चाय की दुकान पर नौकरी कर ली। मैंने पूछा कि क्या वहां का कोई नंबर होगा। उसने न में जवाब दिया तो मानों ऐसा लगा कि शायद सब कुछ शून्य सा हो गया हो। बड़ा अजीब लगा मुझे। मैं जैसे तैसे बहाना बनाकर नैनीताल पहुंच गया। बस स्टैंड पर बहुत से चाय वाले देखे लेकिन मुझे जिंदू कहीं नहीं दिखा। लोगों से पूछा, उस होटल में जाकर भी पूछा लेकिन कुछ पता नहीं चला। में मायूस होकर मॉल रोड से नैना देवी मंदिर की ओर जाने लगा। जैसे ही मंदिर के पास पहुंचा तो देखा कि कुछ चाय वाले उधर भी हैं। मैने सोचा उनसे ही पूछ लूं...तभी देखा कि जिंदगी चार चाय के खाली ग्लास लेकर आ रहा है। उसने मुझे देखा तो एक बारगी पहनान ही नहीं पाया। उसको मेरे आने का मकसद भी नहीं पता था। उसको देखकर ऐसा लगा कि मानों सालों से खोया कोई अपना मिल गया हो। उसने मुझे पुराना जान पहचान का युवक समझ कर चाय पिलाई। मैंने पूछा कि अब दादी कैंसी हैं। बोला कि ठीक नहीं है। तभी तो अब कुछ पैसों के लिए यहां काम करना पड़ा। मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हारी दादी से मिलना चाहता हूं। उसने एक झटके में हां कर दी...और कहा कि भैया...फिर आपको रात को आना होगा...तकरीबन ग्यारह बजे के बाद...मैं तभी घर पहुंचता हूं। मैने हां कर दी और उसने अपना पता बता दिया।
खाना खतम हो चुका था। जिंदगी ने मेरे सामने रखी थाली हटाई। और कहा कि भैया मिलो दादी से...। मैंने उनसे बात की तो पता चला कि उनको स्पाइन की कोई समस्या है। डॉक्टरों ने कहा कि या तो इसका इलाज दिल्ली एम्स में है या फिर पीजीआई चंडीगढ़। मैं दोनों लोगों से ढेर देर तक बाते करता रहा। मैंने बूढ़ी दादी को बताया कि मैं अभी पढ़ाई कर रहा हूं...लेकिन जब कभी नौकरी लगेगी तो मैं आपके इलाज में जितनी मदद कर सकूंगा उतनी करूंगा। इतना सुनते ही जिंदू मेरे गले लिपट गया...और मैं उसकी तथा अपनी आंखों में आए आंसुओं को पोछता रहा...रात के करीबन डेढ़ बज रहे थे तो मैंने जिंदू को मेरी जेब में जितने रुपये थे उनमें से महज डेढ़ सौ रुपये छोड़कर सब दे दिए। मुझे जहां तक याद आ रहा है...शायद उसको तैतीस सौ रुपये दिए थे। मैं वहां से चल पड़ा...रात को बस पकड़ी...बरेली और बरेली सीधे गोला...।
समय बीतता गया और मैं दाने पानी के जुगाड़ में लखनऊ, बरेली, बदायूं और फिर वापस लखनऊ...उसके बाद चंडीगढ़ का रास्ता पकड़ लिया। नौकरी के लिए संघर्ष करना पड़ा सो एक लंबे अंतराल तक जिंदू से बात नहीं हुई। सन दो हजार छह में अचानक मेरे मोबाइल पर एक फोन आया...जिस नंबर से फोन आया दरअसल वह नंबर कभी मेरा होता था लेकिन चंडीगढ़ आने से पहले उसको बंद करा दिया था। इसलिए यह नंबर अब किसी बलिया के व्यक्ति ने ले लिया था। खैर, उस फोन करने वाले ने बताया कि आपका नया नंबर मुझे आपके पुराने संस्थान से मिला है। दरअसल एक जिंदू नाम का कोई लड़का आपको बहुत फोन करता था। मैं उससे बार बार कहता था कि यह नंबर अब मेरे पास है लेकिन वह यही जिद करता था कि भैया से पूछो वह मुझसे किस बात से नाराज हैं। क्यों नहीं बात करते हैंं मुझसे....फोन करने वाला शख्स यह बताता रहा और मेरी आंखो से झर झर आंसू बहते रहे। मैंने उससे पूछा कोई नंबर होगा जिससे वह फोन करता था। उसने जो नंबर दिया मैंने तत्काल उस पर फोन किया तो पता चला कि वह किसी पीसीओ का नंबर है लेकिन वह जिंदू को जानता था। पीसीओ वाले ने कहा कि...सर...जिंदू तो अब इस दुनिया में नहीं रहा...अपनी दादी का इलाज कराने जा रहा था...रास्ते में उनकी बस खड्ड में गिर गई। जहां दोनों लोगों की मौत हो गई...। इतना सुनते ही मैं चीख पड़ा....और मेरी चीख सुनकर मेरी बीबी ने मुझको हिलाते हुए जगाया और चिल्लाई...कौन सा सपना देख लिया जो इतनी तेज चीखे हो...देखो...आरव(मेरा एक साल का बेटा) भी जाग गया...मैं तुंरत उठा...घडी की ओर देखा तो सुबह के सवा सात बजे थे...बाहर मौसम सुहाना था...मैं सैर के लिए निकल पड़ा...उस सपने को याद करते हुए...जो कभी सालों पहले हकीकत हुआ करता था...उस जिंदू को जो मुझे पहली बार नंगे पांव बस स्टैंड पर मिला था...।


Wednesday, June 22, 2011

कंपनी वाले भगवान...

पेरिस वाली आंटी को गणेश जी देना है तो किसी अच्छी कंपनी वाले गणेश जी लेना...वो दिखने में एकदम गणेश जी लगते हैं...मेरी भाभी जी ने मुझे लखनऊ से फोन करके यही कहा।
दरअसल मेरी एक बहुत करीबी महिला मित्र हैं, उनकी उम्र पचास साल के आस पास है इसलिए उनको में आंटी कहता हूूं। मूलत: पेरिस की रहने वाली हैं और हमारे एक घरेलू कार्यक्रम में शरीक होने लखनऊ पहुंची थी। उनका कार्यक्रम मेरे साथ इसी सोलह जून को वापसी में चंडीगढ़ भी आने का बना। चूंकि बड़े दिनों बाद वह मेरे पास चंडीगढ़ आ रहीं थी इसलिए मैंने सोचा कि उनको भगवान गणेश जी की प्रतिमा भेंट करूं।
खैर, भगवान विदेश जा रहे थे...दुनिया के सबसे फैशनेबल शहर में वह किसी के घर में बने गिरिजाघर में विराजेंगे सो मेंने भी सोचा कि कंपनी के भगवान ही बेहतर हैं। चूंकि मेरी भाभी जी ने कहा था गणेश जी कंपनी के लेना इसलिए मेरा रुझान इस ओर कुछ और भी बढ़ गया था। मैं सेक्टर सत्रह की एक गिफ्ट शॉप पर चला गया। वहां पहुंचा तो देखा तमाम कंपनियों के भगवान हैं। जो अच्छी कंपनी और ज्यादा कीमत वाले भगवान थे उनके  फीचर्स ज्यादा शार्प थे और जो जरा हल्की फुल्की कंपनी के थे उनके फीचर्स कुछ कुछ ठीक टाइप के थे या यूं कहलें कि काम चलाऊ थे...और जो लोकल टाइप की कंपनी के भगवान थे उनके  तो कोई फीचर्स ही नहीं थे। दुकानदार का कहना था कि लोकल कंपनी वाले माल में शकल पर मत जाओ...श्रृद्धा को देखो और जो जिस भगवान को लेना चाहते हो उसका नाम लेकर कोई सा भी आंख बंद करके खरीद लो...।
इतना सब देखने के बाद तो दिमाग में आया कि भगवान तो कंपनी के ही लेने में फायदा हैं। वरना क्या फायदा लोकल कंपनी के भगवान ले जाऊं और फिर घर में यह सिद्ध करता घूमूं कि...भई जो में लाया हूं वह गणेश भगवान ही हैं। खैर मैनें ब्रांडेड  कंपनी के रुमार्ट वाले गणेश जी को पसंद कर ही लिया। उनकी पैकिंग करवाई...और अपनी गाडी में आ गया...कार की जैसे ही चाबी ऐंठी तो एफएम पर प्रदीप जी का बड़ा पुराना एक गीत आ रहा था...चांद न बदला, सूरज न बदला न बदला ये आसमान, कितना बदल गया इंसान...देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान...कितना बदल गया इंसान...मैं भी इस गाने का आनंद उठाता हुआ धीरे धीरे अपने घर की ओर चल दिया...।

Sunday, March 27, 2011

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन-२


तकरीबन सात साल बाद मैं इस बार होली पर अपने गांव गया था। लोगों से मिला लेकिन उनसे मिलने में मुझे कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। मेरा तो मन बार बार उस घर को देखने का कर रहा था जहां पर बचपन के दिन बिताए थे। मैं अपने गांव के घर में तकरीबन २२ साल बाद जाने वाला था।

रह रह कर बस मन में एक ही बात आ रही थी कि...पता नहीं घर कैसा होगा...घर के पास में खड़ा वह पीपल का पेड़ क्या अभी भी होगा या नहीं...मुझे याद आ रहा था कि मेरे घर के आंगन में पीपल के पत्ते खूब उड़-उड़ कर गिरते रहते थे। जिसको मेरी दादी मां हर रोज सुबह और शाम को झाड़ू से साफ किया करती थी। मेरे घर के बाहर और पीपल के पेड़ के नीचे एक मंदिर होता था। उस मंदिर के चबूतरे पर मैं एक लाल रंग की छोटी सी साइकिल चलाता था। गांव में घर था सो खूब बड़ा था। घर के पीछे अमरूद और शरीफा का पेड़ लगा था। मुझे तो बस यही दो पेड़ याद हैं, शायद थे कुछ और भी। आंगन के एक कोने में नल लगा था...मुझे याद है मेरी दादी मां मुझे जबरदस्ती पकड़ कर इसी नल के चबूतरे पर नहलाया करती थी और मैं नहाने के नाम पर रोता भी खूब था। खैर...और भी बहुत कुछ आंखों के सामने घूम रहा था...। मैं गांव में अपने चाचा के घर बैठ कर यह सब सोच ही रहा था कि तभी आवाज आई...चलो घर देखने चलते हैं।

जैसे घर के सामने पहुंचा...तो यकीन मानिए चंद सेकेंड के लिए एक बारगी मेरी आंखे नम हो गई। यहीं वह घर हैं जहां पर मैंने बचपन गुजारा था...मेरे पिता जी ने शहर में घर बनवाने के बाद इस गांव के घर को किसी परिचित को मुफ्त में दिया था। मुफ्त में घर देने की मंशा यही थी कि कम से कम घर तो बना रहेगा। वरना खाली पड़े घर का क्या होता। कुछ दिन बाद खंडहर ही हो जाता। खैर...मैं अपने घर के दरवाजे की ओर बढ़ा। सब कुछ बदल गया...अब न तो वह घर जैसा घर रहा...और न वह लंबा चौड़ा घर का द्वार। घर के पास में लगा पीपल का पेड़ बूढ़ा हो चुका था। अब न तो उसकी लंबी-लंबी डालियां बची थी और न ही उसके पत्ते। मैने उस मकान में रहने वाले चाचा से कहा कि अंदर देख सकता हूं...उन्होंने जैसे कहा हां हां आओ बेटा...आपका ही घर है...तो लगा कि मुझे बहुत कुछ मिलने वाला है...जिसकी मुझे तलाश थी। अंदर पहुंचते ही देखा कि अब वह बरोठे (बैठक, ड्राइंगरूम) की रौनक गायब हो चुकी थी। बरोठे में लगा लकड़ी का दरवाजा वही सालों पुराना था लेकिन दीवारे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थीं। आंगन में निकलते ही सामने रसोई हुआ करती थी मुझे वह भी दिखी नहीं...मेरी निगाहें बार बार उस आंगन में लगे नल को खोज रही थी जहां से मैं हमेशा नहाने के नाम पर भाग जाया गरता था, कहीं नहीं दिखा। नल शायद अपना अस्तित्व खो चुका था। मैंने अपने पुराने घर में रहने वालों से पूछा कि अब पीपल के पत्ते तो नहीं गिरते हैं...तो उनका जवाब था...कहां...अब तो पेड़ ही देखो सूखने लगा है। घर के पीछे पहुंचा देखा कि वहां न तो शरीफे का पेड़ था और न ही अमरूद का। पूछने पर पता चला कि मकान को थोड़ा और पीछे बनाना था सो नींव की भेंट चढ़ गए दोनों पेड़।

बड़ा ही उजड़ा उजड़ा सा लगा...जो सोचा था वैसा कुछ भी नहीं रहा वहां पर। सब कुछ आधुनिकता की भेंट चढ़ गया। पास के मंदिर में शायद ताला पड़ गया था। कोई विवाद की वजह बताई गई।

शाम ज्यादा होने लगी थी...कुछ और लोगों से मिलकर वापस जाना था...सो पिता जी ने कहा कि चलो अब चलते हैं। कार की चाबी घुमाई और पल भर में अपने उस घर के सामने से इस तरह से काफूर हो गया मानों लगा हो कि यह तो सिर्फ सपना था...बार बार सच्चई को झुठलाने की कोशिश कर रहा था कि शायद अभी भी अपना घर एकदम वैसा ही होगा जैसा मैने बचपन में छोड़ा था...लेकिन ऐसा था नहीं...गांव बदल गए...घर बदल गए...गांवों की अब हवाएं भी बदल गई...बदलें भी क्यों न...क्योंकि अब हवा देने वाले वह पीपल के पेड़ भी तो जाने को आतुर हैं।

Saturday, February 26, 2011

वो दिन कहां से लाऊं...पार्ट-१

काम करने के बाद रात को दफ्तर से घर लौट रहा था। रात दस-सवा दस बजे के बाद अक्सर सुनसान हो जाने वाली चंडीगढ़ की चौड़ी सड़कों पर घर तक सुकून से पहुुचने का एक ही जरिया था...एफएम। कार का एफएम ऑन कर दिया। उसमें कुछ बहुत ही पुराने किस्से सुनाए जा रहे थे। ऐसे किस्से जो रात के अंधेरे में सुनने के बाद एक बारगी हर शख्स अपने पुराने दिनों में पहुचाने को मजबूर कर दें। मैं भी उन यादों के झरोखे में पहुंच गया जो बरसों पहले एक छोटे से कस्बे में बना था। घर पहुंचते ही सबसे पहले मै यादों के पिटारे से कुछ निकालने लगा...जो निकला उसको आपकी खातिर कुछ यूं लिख दिया...। 
 मेरी उम्र यही कोई आठ या नौ साल की थी। मैं अपनी बहन (जो मुझसे छोटी है) के साथ छत पर बैठा था। चार बजने को थे। यकीन मानिए हमेशा चार बजने के समय 0मैं यही सोचता था...काश...ये चार न बजा करें। सीधे तीन बजने के बाद पांच बज जाया करें। दरअसल चार बजे मेरे एक टीचर घर पर ट्यूशन पढ़ाने आते थे। और मैं हमेशा बोरिंग और डांट खाने वाली ट्यूशन से बचने की कोशिश करता था। 
खैर साइकिल की घंटी बजी। घंटी की आवाज सुनी और छत पर से अपने घर के आस पास खाली पड़े मैदान में लाचार होकर उन बच्चों को देखा जो मस्त होकर खेल रहे थे...और मैं...बैग उठाऊंगा और पढऩे जाऊंगा। बड़ी ही जलन हुई उनको देखकर। लेकिन नीचे आया। मेरी बहन भी मेरे साथ ही ट्यूशन पढ़ती थी। मैने उससे कहा...तुम पहले जाओ...मैं आता हूं। वह चली गई और मै अपना बैग उठाने के बहाने अपने कमरे में घुस गया। जी तो करता नहीं था ट्यूशन पढऩे का इसलिए सोचा कुछ देर और लग जाए तो कम से पांच जल्दी बज जाएंगे। लेकिन हमेशा की तरह मेरी मंशा को भांप मेरे टीचर ने आवाज लगाई...आशीष कहां हो...आना नहीं है क्या। मैंने कहा...आ रहा हूं सर। एक कुर्सी खाली थी। सामने आचार्य जी और एक कुर्सी पर मेरी बहन बैठी पढ़ रही थी। मैने कॉपी निकाली और किताबें। होमवर्क चेक कराया। जो नहीं किया था उसके लिए हमेशा की तरह लंबी डांट पड़ी। बहाने भी वहीं पुराने वाले बनाए कि...सर स्कूल में काम ज्यादा मिला थाए इसलिए होमवर्क नहीं किया...मम्मी के साथ बाजार चला गया था...रात को जल्दी सो गया था...या पेट में दर्द हो रहा था...वगैरा...वगैरा...। बावजूद इसके पिटाई मेरी हो ही जाती थी। 
खैर, जहां पर मैं बैठता था मुझे याद है सामने की दीवार पर घड़ी लगी हुई थी। मैं हमेशा अपने टीचर की नजरों से बचते हुए उसकी ओर निगाहे दौड़ा ही लेता था। और देखता था कि बड़ी वाली सुई कहां पर है। सुकून तब मिलने लगता था जब बड़ी (मिनट वाली सुई) सुई नौ के करीब पहुंच जाती थी। मुझे लगता था कि ...बस...अब जल्द ही छूटने वाला हूं। जैसे ही मेरे टीचर होमवर्क देना शुरू करते थे तो मुझे लगता था...चलो...बंधन से मुक्ति मिली...और उनके जाने के बाद सीधे मैदान पर। उस जुनून के साथ जैसे कोई अभी आजाद हुआ हो...।

  यादों के झरोखे से फिलहाल इतना ही...क्योंकि लिखते लिखते काफी समय लग गया। शायद सवा बारह बजने को हैं। और आज मैंने अपना फेवरेट तारक मेहता का उल्टा चश्मा भी नहीं देखा। पत्नी की आवाज आती है...चलो अब खाना भी खा लिया जाए...मैं उठता हूं...और हाथ धोने से लेकर खाने की टेबल तक आने में मुझे कई बार उसी साइकिल की घंटी की आवाज सुनाई देती है। जिसको सुनकर मैं हमेशा सोचता था...काश तीन बजने के बाद पांच बजा करें...।  क्रमश: ...