Monday, July 23, 2012

भेड़ बकरियों की तरह नहीं, यहां तसल्ली से देखेंगे डॉक्टर साहेब...


अवस्थी...शायद यही सर नेम था उस सिक्योरिटी गार्ड का। जब मैंने अपनी दादी मां को डॉक्टर से दिखलाने के लिए उसको पचास रुपये की घूस दी थी। वह फौरन अंदर गया और चंद मिनट बाद डॉक्टर को कार तक ले आया। जहां मेरी दादी मां बेसुध पड़ी थी। डॉक्टर ने देखा और कहा कि क्लॉटिंग ज्यादा हो गई है। उम्र बहुत ज्यादा है सर्जरी नहीं हो सकती। ऐसा करो...आप, बाहर नीलकंठ मेडिकल स्टोर है, वहा से एक महीने की दवाएं ले जाओ और फिर दिखा लेना।
मैं अपने पिता जी और एक दो अन्य रिश्तेदारों के साथ दवा लेकर वापस अपने कस्बे की ओर दादी को लेकर चल पड़ा। आज से तकरीबन बारह साल पहले मेरी दादी को ब्रेनस्ट्रोक हुआ था। मेरे कस्बे में तो कोई डॉक्टर था नहीं सो पास के सबसे बड़े शहर लखनऊ ही लेकर आना एक रास्ता बचता था। लखनऊ तो दादी मां को लेकर चल दिए लेकिन यह नहीं पता था कि दिखाना किसे है। किसी ने बातचीत में किंगजाार्ज मेडिकल कॉलेज के एक बड़े नामी गिरामी न्यूरो फिजीशियन का नाम बताया था। पहु़च गए उनके दरवाजे पर। लंबी लाइन। सैकडा़ें मरीज। दरवाजे पर एक बंदूकधारी सुरक्षा गार्ड...वही अवस्थी जी...। भीड़ देखकर लगा कि इलाज यहां भी करा पाना बहुत मुश्किल है। एक घंटा...दो घंटा...तीन...चार...जब शाम होने लगी तो मैने वहां खड़े सिक्योरिटी गार्ड से धीरे से पूछा...क्या कोई गुंजाईश है कि डॉक्टर साहब बाहर आकर मेरी दादी मां को देख सकें...वह पिछले चार घंटे से कार में लाचार पड़ी हैं। उसने पहले मेरी ओर देखा...फिर उस कार की ओर जिसमें दादी अचेतावस्था में पड़ी थी...थोड़ा सोच विचार कर मुझे किनारे ले गया और धीरे से कहा कि कुछ चाय पानी कराओंगे...मुझे लगा कि अब रास्ता मिल गया है। शायद मेरी दादी को डॉक्टर साहब देख लें..अवस्थी जी को पचास का नोट थमाया और अवस्थी जी डॉक्टर साहब के कमरे में....। थोड़ी देर में देखा कि छोटे कद के एक मोटे से डॉक्टर साहब आला लेकर कार के पास आ गए। खैर...मेरी दादी का इलाज उन डॉक्टर साहब के पास बहुत दिनों तक चला लेकिन वह मेरी दादी को नहीं बचा सके। इतने दिनों में अवस्थी जी ने दुनिया में काम कराने का एक तरीका जरूर सिखा दिया था।
समय करवट बदलने लगा। मैं पढ़ाई करने के लिए लखनऊ पहुंच गया। हिन्दुस्तान अखबार में बगैर पैसे के काम करने वाला स्ट्रिंगर बन गया। मेरे एक बड़े भाई समान सहयोगी मिले तो उनके साथ हेल्थ बीट में काम करने के लिए मेडिकल कॉलेज जाने लगा। वहां पर उन डॉक्टर साहब से भी मुलाकात होने लगी जिनके सिक्योरिटी गार्ड को पचास रुपये देकर में अपनी दादी को दिखाने जाता था।
समय थोड़ा और तेज चला। मैं लखनऊ के रास्ते चंडीगढ़ अमर उजाला आ गया। हेल्थ बीट में काम करने का मौका मिला। पीजीआई जैसे देश क्या पूरी दुनिया के सबसे बेहतरीन अस्पताल में रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी मिली। उसी दैरान मेरे पीजीआई के एक बहुत करीबी हो चुके डॉक्टर दोस्त कम अंकल को इंडियन एसोसिएशन ऑफ न्यूरोलॉजी का प्रेसीडेंट बनाया गया। मैं उनके दफ्तर में बैठा था। तभी देखा कि कमरे के दरवाजे से एक मोटे से छोटे कद के एक डॉक्टर साहब अंदर घुसे। एक बारगी तो मैं उनको पहचान ही नहीं पाया...लेकिन दिमाग पर जोर डाला तो पाया कि यह तो लखनऊ वाले डॉक्टर साहब हैं। जिनके पास मैं अपनी दादी मां को लेकर जाया करता था। एैनीवे...बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ...पीजीआई वाले डॉक्टर साहब ने मेरा परिचय कराया और उनसे बातचीत शुरू हुई। तब पता चला कि कल से पीजीआई में शुरू होने वाले एथिक्स इन मेडिकल प्रैक्टिस के नेशनल सेमिनार में उक्त डॉक्टर साहब मुख्य वक्ता के तौर पर बोलने आए हैं। ...लखनऊ वाले डॉक्टर साहब पीजीआई के डॉक्टर साहब से अपने कल के होने वाले डिस्कशन के मुख्य बिंदुओं पर चरचा कर रहे थे...वह बार बार इस बात पर जोर दे रहे थे कि सरकार द्वारा मिलने वाला नॉन प्रैक्टिसिंग अलाउंस (प्राइवेट इलाज न करने पर सरकार द्वारा दिए जाने वाले वाला भत्ता ) अब और बढऩा चाहिए। मुझे उनकी इन बातों को सुनकर अपनी दादी मां की झुर्रियों वाला वह चेहरा याद आ रहा था कि मेडिकल कॉलेज के सरकारी डॉक्टर के घर में कैसे घंटों पड़े रहने के बाद इलाज होता था। आज भी याद है वह शब्द...जब सिक्योरिटी गार्ड कहता था...डॉक्टर साहब अभी तो मेडिकल कॉलेज से आए हैं...थोड़ा इंतजार करो...बहुत सही जगह आए हो...अस्पताज में तो भेड़ बकरियों की तरह भीड़ हाती है...घर पर तो बहुत तसल्ली से देखेंगे...
:(    

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