Sunday, March 27, 2011

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन-२


तकरीबन सात साल बाद मैं इस बार होली पर अपने गांव गया था। लोगों से मिला लेकिन उनसे मिलने में मुझे कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। मेरा तो मन बार बार उस घर को देखने का कर रहा था जहां पर बचपन के दिन बिताए थे। मैं अपने गांव के घर में तकरीबन २२ साल बाद जाने वाला था।

रह रह कर बस मन में एक ही बात आ रही थी कि...पता नहीं घर कैसा होगा...घर के पास में खड़ा वह पीपल का पेड़ क्या अभी भी होगा या नहीं...मुझे याद आ रहा था कि मेरे घर के आंगन में पीपल के पत्ते खूब उड़-उड़ कर गिरते रहते थे। जिसको मेरी दादी मां हर रोज सुबह और शाम को झाड़ू से साफ किया करती थी। मेरे घर के बाहर और पीपल के पेड़ के नीचे एक मंदिर होता था। उस मंदिर के चबूतरे पर मैं एक लाल रंग की छोटी सी साइकिल चलाता था। गांव में घर था सो खूब बड़ा था। घर के पीछे अमरूद और शरीफा का पेड़ लगा था। मुझे तो बस यही दो पेड़ याद हैं, शायद थे कुछ और भी। आंगन के एक कोने में नल लगा था...मुझे याद है मेरी दादी मां मुझे जबरदस्ती पकड़ कर इसी नल के चबूतरे पर नहलाया करती थी और मैं नहाने के नाम पर रोता भी खूब था। खैर...और भी बहुत कुछ आंखों के सामने घूम रहा था...। मैं गांव में अपने चाचा के घर बैठ कर यह सब सोच ही रहा था कि तभी आवाज आई...चलो घर देखने चलते हैं।

जैसे घर के सामने पहुंचा...तो यकीन मानिए चंद सेकेंड के लिए एक बारगी मेरी आंखे नम हो गई। यहीं वह घर हैं जहां पर मैंने बचपन गुजारा था...मेरे पिता जी ने शहर में घर बनवाने के बाद इस गांव के घर को किसी परिचित को मुफ्त में दिया था। मुफ्त में घर देने की मंशा यही थी कि कम से कम घर तो बना रहेगा। वरना खाली पड़े घर का क्या होता। कुछ दिन बाद खंडहर ही हो जाता। खैर...मैं अपने घर के दरवाजे की ओर बढ़ा। सब कुछ बदल गया...अब न तो वह घर जैसा घर रहा...और न वह लंबा चौड़ा घर का द्वार। घर के पास में लगा पीपल का पेड़ बूढ़ा हो चुका था। अब न तो उसकी लंबी-लंबी डालियां बची थी और न ही उसके पत्ते। मैने उस मकान में रहने वाले चाचा से कहा कि अंदर देख सकता हूं...उन्होंने जैसे कहा हां हां आओ बेटा...आपका ही घर है...तो लगा कि मुझे बहुत कुछ मिलने वाला है...जिसकी मुझे तलाश थी। अंदर पहुंचते ही देखा कि अब वह बरोठे (बैठक, ड्राइंगरूम) की रौनक गायब हो चुकी थी। बरोठे में लगा लकड़ी का दरवाजा वही सालों पुराना था लेकिन दीवारे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थीं। आंगन में निकलते ही सामने रसोई हुआ करती थी मुझे वह भी दिखी नहीं...मेरी निगाहें बार बार उस आंगन में लगे नल को खोज रही थी जहां से मैं हमेशा नहाने के नाम पर भाग जाया गरता था, कहीं नहीं दिखा। नल शायद अपना अस्तित्व खो चुका था। मैंने अपने पुराने घर में रहने वालों से पूछा कि अब पीपल के पत्ते तो नहीं गिरते हैं...तो उनका जवाब था...कहां...अब तो पेड़ ही देखो सूखने लगा है। घर के पीछे पहुंचा देखा कि वहां न तो शरीफे का पेड़ था और न ही अमरूद का। पूछने पर पता चला कि मकान को थोड़ा और पीछे बनाना था सो नींव की भेंट चढ़ गए दोनों पेड़।

बड़ा ही उजड़ा उजड़ा सा लगा...जो सोचा था वैसा कुछ भी नहीं रहा वहां पर। सब कुछ आधुनिकता की भेंट चढ़ गया। पास के मंदिर में शायद ताला पड़ गया था। कोई विवाद की वजह बताई गई।

शाम ज्यादा होने लगी थी...कुछ और लोगों से मिलकर वापस जाना था...सो पिता जी ने कहा कि चलो अब चलते हैं। कार की चाबी घुमाई और पल भर में अपने उस घर के सामने से इस तरह से काफूर हो गया मानों लगा हो कि यह तो सिर्फ सपना था...बार बार सच्चई को झुठलाने की कोशिश कर रहा था कि शायद अभी भी अपना घर एकदम वैसा ही होगा जैसा मैने बचपन में छोड़ा था...लेकिन ऐसा था नहीं...गांव बदल गए...घर बदल गए...गांवों की अब हवाएं भी बदल गई...बदलें भी क्यों न...क्योंकि अब हवा देने वाले वह पीपल के पेड़ भी तो जाने को आतुर हैं।