Wednesday, October 14, 2009

हां...मैंने झेला है तालिबान का कहर

तालिबानी फरमान...मतलब कुछ ऐसा जो कि सबसे हटके हो। मसलन...महिलाएं ब्यूटी पार्लर न जाएं...मुस्लिम युवकों को दाढ़ी रखनी ही होगी...टेलीवीजन देखना अपराध है...और अगर खुदा न खास्ता कहीं सीडी या डीवीडी से कोई फिल्म या गाने आदि सुन लिए तो समझो कहर बरपा ही बरपा। इन सबको जिसने नहीं माना उसका सिर अगले दिन स्वात घाटी के उन तीस गांवों में से किसी एक गांव के चौराहे पर पड़ा मिलता था जहां के वह वाशिंदे होते थे।
खुदाबक्श और शाहिद...ये वो दो शख्स हैं जिन्होंने तालिबानी बर्बरता को बहुत नजदीक से देखा है। पिछले सोमवार को मैं इन दोनों युवकों से चंडीगढ़ में एक ट्रेड फेयर में मिला। दोनों फेयर में हिस्सा लेने आए थे। ये दोनों स्वात घाटी के मिंगौरा टाउन के रहने वाले हैं। मिंगौरा स्वात घाटी की सबसे ज्यादा चहल पहल वाली जगह है। खुदाबक्श बताता है कि हर सुबह मैं अपना एफम रेडियो शुरू कर देता था। किसी भी वक्त एक संदेश गूंजता था...और बस...सब की जान हलक में। लोग अपने घरों से नहीं निकलते थे। क्योंकि डर बना रहता था कि पता नहीं कब कौन किस चौराहे पर तालिबानी बर्बरता का शिकार बन जाए। इसी बीच शाहिद बोल पड़ता है...भाईजान तालिबान की सीआईडी बहुत तेज थी...उन लोगों को पता चल जाता था कि किसने उनके आदेशों का पालन नहीं किया है। बस समझो कि उसका काम तमाम हो जाता था। हम लोग कहीं जाते ही नहीं थे। घरों पर लगे डिश टीवी के एंटीने उतर गए थे। बस रेडियो पर ही समाचार सुनकर जानते थे कि कहर कितना बरप रहा है। पियूचार...ये वो गांव है स्वात घाटी का जो कि तालिबानियों का गढ़ है। दोनों युवकों के मुताबिक इसी गांव से तालिबानियों के समर्थन में सबसे ज्यादा आवाजें आती थी। पेशे से कपड़ों के व्यापारी दोनों भाईयों का कहना है कि एक दिन अल-सुबह पाकिस्तान की फौज की ओर से आदेश आया कि...सभी लोग तीन घंटों के अंदर अपने अपने घरों को छोड़ दो...किसी दूसरे शहर में जाकर आसरा लो। हम लोगों को तालिबानियों का सफाया करना है। सालों पुराने पुस्तैनी घरों को एकदम छोड़कर जाना...बहुत मुश्किल काम था। न जाने कितनी यादें जुड़ी हुई थी इन घरों से। ये कहना मुश्किल था कि जो घर हम छोड़कर जा रहे हैं वो तालिबानी सफाए के दौरान बचेंगे भी या नहीं...और भी न जाने क्या क्या। लेकिन जाना तो था ही। सो हम लोग अपनी अम्मी, अब्बू और भाई बहन के साथ पाकिस्तान के मरदान शहर आ गए। तीन महीने बाद...कहा गया कि आप लोग वापस अपने अपने घरों में जा सकते हो। वापस जाकर देखा तो सब कुछ सहीं सलामत था...बताया गया कि फजुल्लाह मारा गया...अब शायद अमन शांति हो सकेगी। दोनों भाई सोमवार यानीकि 12 अक्टूबर को ये बातचीत मेरे साथ कर रहे थे कि टीवी पर एक खबर फ्लैश होती है कि...फिर से तालिबान का पाकिस्तान में कहर, सेना ने की कार्रवाई...दोनों भाईयों ने ये सुनकर एक बार फिर से खुदा को याद किया...और दुआ की कि उनके घर में अब्बू, अम्मी और छोटी बहन की हिफाजत करना...इतना कह कर वह एक जाने पहचाने भय के साथ अपने काम में मन लगाने में व्यस्त्त होने की कोशिश करने लगे...ये सोचते हुए कि जल्दी से वापस अपने घर जाएं...अपनी घाटी में...अशांति ही सही लेकिन अपनों के बीच...।

Saturday, October 3, 2009

रात का सफर

रात का सफर शाम ढल रही थी। ठंड तो थी ही। लेेकिन सूरज पहाड़ों की गोद में पनाह लेने के बाद कुछ ज्यादा ही ठंड का अहसास कराने पर तुला था। रोशनी से धीरे धीरे दुकानें तो जगमगा ही रही थीं बल्कि दूर दराज की पहाडिय़ों पर भी रोशनी के जुगनू टिमटिमाने लगे थे। शिमला की माल रोड पर हम कुछ साथियों के साथ काफी हाऊस में बैठे कॉफी की चुस्कियां ले रहे थे।तभी पीछे से आवाज आती है...चलो भई...चलना नहीं है...सामान वामान पैक करना है। रात को अपनी बस है। हम लोग अब शिमला से मनाली के लिए जाने वाले थे।जैसे तैसे सर्द हो चुकी रात में हम लोग अपने होटल पहुंचे। वहां से सामान उठाया। जैकेट पहनने के साथ एक गर्म चादर साथ में रख ली। इसका अंदाजा बखूबी था कि ठंड की रात में सरकारी बस का सफर किसी भी तरह का हो सकता था मसलन ठिठुरन भरा। हुआ भी करीब-करीब वैसा ही। बस चली तो एक अजब ही जोश...लेकिन इस जोश को फुर्र होते ज्यादासमय न लगा। क्योंकि सरकारी बसों की एकाध खिड़कियों के पूरी तरह से बंद न होने केे कारण बर्फ सी चुभने वाली शीत लहर अंदर घुसने लगी थी। मैने तो तुरंत ही सीट छोड़कर बस के बीच मेंं बनी गैलरी में एक चादर बिछाई और गरम चादर को ओढ़ कर लेट गया। कब नींद आई पता नहीं लेकिन जब जगाया गया तो मनाली आ चुका था। उन साथियों ने मुझे लात मार कर जगाया जिनको बस में लेटनेे की जगह नहीं मिली थी। वैसे उन साथियों ने मुझे जगाने के बाद यही कहा कि तूने रात को हमलोगों की मस्तियों का दौर नहीं देखा। तूने बहुत कुछ मिस कर दिया। किसी नेबताया कि हम लोग तो रातभर अंताक्षरी खेलते आए तो किसी ने बताया कि में तो इसी जुगाड़ में लगा रहा कि अपनी गर्ल फ्रेंड के पास जाकर बैठ जाऊंतो कोई कुछ बताने में लग गया। लेकिन मुझे बाद में ये पता चला कि इन सभी मस्ती तो क्या ही की लेकिन मेरे जैसे तीन अन्य साथियों को खूब कोसा...साले...पहले ही लेट गए...अब बताओं हम कहां लेटे...ठंड के मारे जान निकली जा रही है। वैसे इनमें बहुत से ऐसे लोग भीथे जो कि लड़कियों के सामने गैलरी में लेटना अपनी शान केे खिलाफ समझते थे...लेकिन यकीन मानिए मुझे जहां तक पता चला तो इनकी ये शान रात भर में हवा हो गई थी।खैर, हम सभी मनाली के बस अड्डे पर खड़े थे। विश्वकर्मा सर ने कहा कि चाय वाय पी ली जाए फिर होटल की ओर चले। जब हम लोग मनली पहुचे तो सुबह के तकरीबन पांच बज रहे थे। सर्दी के मौसम में उस वक्त अंधेरा ही होता है। सफर यही कोई नौ से दस घंटे का था और चार लोगों को छोड़कर रात को कोई बस में सो भी नहीं पाया था। सो सब लोग होटल पहुंच कर सो गए। बचा मैं और मेरे तीन अन्य साथी। सब लोगों ने योजना बनाई कि चलो यहां की सुबह देखते हैं। हम चारो लोग पैदल ही निकल पड़े मनाली लेह मार्ग पर। ब्यास नहीं अपने मस्त आवेग से बह रही थी...हम लाग सड़क छेाड़ कर नदी के पास पहुंच गए...नदी के पीछे जंगल...और उसके पीछे दूर पहाड़ों पर जमी बर्फ....हम लोगों के कदम उस नजारे को कैद करने के लिए रुक गए..़़.सूरज भी निकलने को था...पूरब दिशा में हल्की हल्की पीली रोशनी लिए हुए धुंध छाई हुई थी...तभी कुछ देर में ही वो धुंध हटने लगी और सूरज की रोशनी से सफेद बर्फ से पहाड़ और ब्यास नदी की लहरें सुनहरे रंग सी दिखनें लगी..आसमान साफ हो गया...घड़ी की ओर नजर दौड़ाई तो पता चला कि सवा सात बज चुके हैं...हम लोगों ने वापस अपने होटल जाने की ओर चल पड़े...वहां पहुंच कर देखा तो सभी लोग अभी भी घोड़े बेचकर सो रहे थे...मैंने भी मौका नहीं गंवाया...उन साथियों को लात मार कर जगाया जिन्होंने मुझे बस में ऐसे जगाया था...।