Wednesday, October 14, 2009

हां...मैंने झेला है तालिबान का कहर

तालिबानी फरमान...मतलब कुछ ऐसा जो कि सबसे हटके हो। मसलन...महिलाएं ब्यूटी पार्लर न जाएं...मुस्लिम युवकों को दाढ़ी रखनी ही होगी...टेलीवीजन देखना अपराध है...और अगर खुदा न खास्ता कहीं सीडी या डीवीडी से कोई फिल्म या गाने आदि सुन लिए तो समझो कहर बरपा ही बरपा। इन सबको जिसने नहीं माना उसका सिर अगले दिन स्वात घाटी के उन तीस गांवों में से किसी एक गांव के चौराहे पर पड़ा मिलता था जहां के वह वाशिंदे होते थे।
खुदाबक्श और शाहिद...ये वो दो शख्स हैं जिन्होंने तालिबानी बर्बरता को बहुत नजदीक से देखा है। पिछले सोमवार को मैं इन दोनों युवकों से चंडीगढ़ में एक ट्रेड फेयर में मिला। दोनों फेयर में हिस्सा लेने आए थे। ये दोनों स्वात घाटी के मिंगौरा टाउन के रहने वाले हैं। मिंगौरा स्वात घाटी की सबसे ज्यादा चहल पहल वाली जगह है। खुदाबक्श बताता है कि हर सुबह मैं अपना एफम रेडियो शुरू कर देता था। किसी भी वक्त एक संदेश गूंजता था...और बस...सब की जान हलक में। लोग अपने घरों से नहीं निकलते थे। क्योंकि डर बना रहता था कि पता नहीं कब कौन किस चौराहे पर तालिबानी बर्बरता का शिकार बन जाए। इसी बीच शाहिद बोल पड़ता है...भाईजान तालिबान की सीआईडी बहुत तेज थी...उन लोगों को पता चल जाता था कि किसने उनके आदेशों का पालन नहीं किया है। बस समझो कि उसका काम तमाम हो जाता था। हम लोग कहीं जाते ही नहीं थे। घरों पर लगे डिश टीवी के एंटीने उतर गए थे। बस रेडियो पर ही समाचार सुनकर जानते थे कि कहर कितना बरप रहा है। पियूचार...ये वो गांव है स्वात घाटी का जो कि तालिबानियों का गढ़ है। दोनों युवकों के मुताबिक इसी गांव से तालिबानियों के समर्थन में सबसे ज्यादा आवाजें आती थी। पेशे से कपड़ों के व्यापारी दोनों भाईयों का कहना है कि एक दिन अल-सुबह पाकिस्तान की फौज की ओर से आदेश आया कि...सभी लोग तीन घंटों के अंदर अपने अपने घरों को छोड़ दो...किसी दूसरे शहर में जाकर आसरा लो। हम लोगों को तालिबानियों का सफाया करना है। सालों पुराने पुस्तैनी घरों को एकदम छोड़कर जाना...बहुत मुश्किल काम था। न जाने कितनी यादें जुड़ी हुई थी इन घरों से। ये कहना मुश्किल था कि जो घर हम छोड़कर जा रहे हैं वो तालिबानी सफाए के दौरान बचेंगे भी या नहीं...और भी न जाने क्या क्या। लेकिन जाना तो था ही। सो हम लोग अपनी अम्मी, अब्बू और भाई बहन के साथ पाकिस्तान के मरदान शहर आ गए। तीन महीने बाद...कहा गया कि आप लोग वापस अपने अपने घरों में जा सकते हो। वापस जाकर देखा तो सब कुछ सहीं सलामत था...बताया गया कि फजुल्लाह मारा गया...अब शायद अमन शांति हो सकेगी। दोनों भाई सोमवार यानीकि 12 अक्टूबर को ये बातचीत मेरे साथ कर रहे थे कि टीवी पर एक खबर फ्लैश होती है कि...फिर से तालिबान का पाकिस्तान में कहर, सेना ने की कार्रवाई...दोनों भाईयों ने ये सुनकर एक बार फिर से खुदा को याद किया...और दुआ की कि उनके घर में अब्बू, अम्मी और छोटी बहन की हिफाजत करना...इतना कह कर वह एक जाने पहचाने भय के साथ अपने काम में मन लगाने में व्यस्त्त होने की कोशिश करने लगे...ये सोचते हुए कि जल्दी से वापस अपने घर जाएं...अपनी घाटी में...अशांति ही सही लेकिन अपनों के बीच...।

Saturday, October 3, 2009

रात का सफर

रात का सफर शाम ढल रही थी। ठंड तो थी ही। लेेकिन सूरज पहाड़ों की गोद में पनाह लेने के बाद कुछ ज्यादा ही ठंड का अहसास कराने पर तुला था। रोशनी से धीरे धीरे दुकानें तो जगमगा ही रही थीं बल्कि दूर दराज की पहाडिय़ों पर भी रोशनी के जुगनू टिमटिमाने लगे थे। शिमला की माल रोड पर हम कुछ साथियों के साथ काफी हाऊस में बैठे कॉफी की चुस्कियां ले रहे थे।तभी पीछे से आवाज आती है...चलो भई...चलना नहीं है...सामान वामान पैक करना है। रात को अपनी बस है। हम लोग अब शिमला से मनाली के लिए जाने वाले थे।जैसे तैसे सर्द हो चुकी रात में हम लोग अपने होटल पहुंचे। वहां से सामान उठाया। जैकेट पहनने के साथ एक गर्म चादर साथ में रख ली। इसका अंदाजा बखूबी था कि ठंड की रात में सरकारी बस का सफर किसी भी तरह का हो सकता था मसलन ठिठुरन भरा। हुआ भी करीब-करीब वैसा ही। बस चली तो एक अजब ही जोश...लेकिन इस जोश को फुर्र होते ज्यादासमय न लगा। क्योंकि सरकारी बसों की एकाध खिड़कियों के पूरी तरह से बंद न होने केे कारण बर्फ सी चुभने वाली शीत लहर अंदर घुसने लगी थी। मैने तो तुरंत ही सीट छोड़कर बस के बीच मेंं बनी गैलरी में एक चादर बिछाई और गरम चादर को ओढ़ कर लेट गया। कब नींद आई पता नहीं लेकिन जब जगाया गया तो मनाली आ चुका था। उन साथियों ने मुझे लात मार कर जगाया जिनको बस में लेटनेे की जगह नहीं मिली थी। वैसे उन साथियों ने मुझे जगाने के बाद यही कहा कि तूने रात को हमलोगों की मस्तियों का दौर नहीं देखा। तूने बहुत कुछ मिस कर दिया। किसी नेबताया कि हम लोग तो रातभर अंताक्षरी खेलते आए तो किसी ने बताया कि में तो इसी जुगाड़ में लगा रहा कि अपनी गर्ल फ्रेंड के पास जाकर बैठ जाऊंतो कोई कुछ बताने में लग गया। लेकिन मुझे बाद में ये पता चला कि इन सभी मस्ती तो क्या ही की लेकिन मेरे जैसे तीन अन्य साथियों को खूब कोसा...साले...पहले ही लेट गए...अब बताओं हम कहां लेटे...ठंड के मारे जान निकली जा रही है। वैसे इनमें बहुत से ऐसे लोग भीथे जो कि लड़कियों के सामने गैलरी में लेटना अपनी शान केे खिलाफ समझते थे...लेकिन यकीन मानिए मुझे जहां तक पता चला तो इनकी ये शान रात भर में हवा हो गई थी।खैर, हम सभी मनाली के बस अड्डे पर खड़े थे। विश्वकर्मा सर ने कहा कि चाय वाय पी ली जाए फिर होटल की ओर चले। जब हम लोग मनली पहुचे तो सुबह के तकरीबन पांच बज रहे थे। सर्दी के मौसम में उस वक्त अंधेरा ही होता है। सफर यही कोई नौ से दस घंटे का था और चार लोगों को छोड़कर रात को कोई बस में सो भी नहीं पाया था। सो सब लोग होटल पहुंच कर सो गए। बचा मैं और मेरे तीन अन्य साथी। सब लोगों ने योजना बनाई कि चलो यहां की सुबह देखते हैं। हम चारो लोग पैदल ही निकल पड़े मनाली लेह मार्ग पर। ब्यास नहीं अपने मस्त आवेग से बह रही थी...हम लाग सड़क छेाड़ कर नदी के पास पहुंच गए...नदी के पीछे जंगल...और उसके पीछे दूर पहाड़ों पर जमी बर्फ....हम लोगों के कदम उस नजारे को कैद करने के लिए रुक गए..़़.सूरज भी निकलने को था...पूरब दिशा में हल्की हल्की पीली रोशनी लिए हुए धुंध छाई हुई थी...तभी कुछ देर में ही वो धुंध हटने लगी और सूरज की रोशनी से सफेद बर्फ से पहाड़ और ब्यास नदी की लहरें सुनहरे रंग सी दिखनें लगी..आसमान साफ हो गया...घड़ी की ओर नजर दौड़ाई तो पता चला कि सवा सात बज चुके हैं...हम लोगों ने वापस अपने होटल जाने की ओर चल पड़े...वहां पहुंच कर देखा तो सभी लोग अभी भी घोड़े बेचकर सो रहे थे...मैंने भी मौका नहीं गंवाया...उन साथियों को लात मार कर जगाया जिन्होंने मुझे बस में ऐसे जगाया था...।

Wednesday, September 9, 2009

देसी छाप इंडियन, देसी छाप मीडिया !

वाह रे देसी छाप इंडियन और देसी छाप मीडिया। ये कभी भी हाई थिंकिंग और हाई प्रोफाइल एप्रोच तो रख ही नहीं सकते। अरे यार...शशि थरूर लंदन में पैदा हुए हैं। उन्होंने दुनिया देखी है। विदेश में उच्च शिक्षा ली है। एसएम कृष्णा भी देश के ऊंचे ओहदेदारों में हैं। विदेश से वह भी पढ़े। ऊपर से विदेश मंत्रालय का भार भी दोनों के कंधों पर आ पड़ा। अब अगर विदेशी नीतियों को तय करने की दशा और दिशा विलायती माहौल में न हो तो थोड़ी सी विदेशी फीलिंग की कहीं न कहीं कमी महसूस होती रहती है। सो पूरी तरह से विलायती माहौल में ढलने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा।....तभी तो ये दोनों लोग राजधानी के मौर्या शेरटन और ताज में पिछले कुछ महीनों से अपना डेरा बनाए हुए थे।

...और दोनों नेताओं की भावनाओं को समझे बगैर हमारी मीडिया पड़ गई इनके पीछे...बेचारे...विदेश मंत्रालय को फाइव स्टार तरीके से चलाने की मंशा को पाले इन नेताओं को बड़े बेआबरू होकर चेक आउट करके निकलना पड़ा। अरे...उन हाई प्रोफाइल मंत्रियों की नजरों में क्या इज्तत रह गई होगी हमारी मीडिया की....यही न...कि ये लोग हर वक्त गरीबों की सोंचा करते हैं...देश में पड़े सूखे की बात करते हैं...सूखे में दम तोड़ रहे किसान की बात करते हैं...झुग्गी और झोंपडिय़ों में रहने वालों की बात करते हैं...मंहगाई में टूट रही आम आदमी की कमर की बात करते हैं...बेरोजगार हुए युवाओं की बात करते हैं...गरीब आदमी के चिकित्सा और स्वास्थ्य की बात करते हैं....और भी न जाने क्या से क्या सोचा होगा आम आदमी यानी मैंगो पीपुल के बारे में राय रखने वाली मीडिया की गरीब सोंच के बारे में

....लेकिन नेता जी जरा ये भी तो सोंचो....कि देश के सैकड़ों सांसद दूर दराज इलाकों से चुनकर राजधानीआते हैं। इनमें से कुछ मंत्री भी बनते हैं। इनमें से कितने लोग ऐसे होते हें जो कि इतने मंहगे होटल में सिर्फ इस वजह से रुकते हैं कि उनका बंगला बनकर तैयार नहीं हुआ है। उसकी साज सज्जा नहीं हुई है। क्या ठहरने के लिए स्टेट गेस्ट हाऊस की सुविधाएं नहीं ली जा सकती। अरे आम आदमियों की तरह जीने की हिम्मत तो डालो नेता जी...

Sunday, September 6, 2009

...और चांद अंगड़ाई लेता हुआ निकल आया

ये बात 2003 की है। भोर के पांच बज रहे थे। और मेरी ट्रेन कालका स्टेशन पर पहुंच रही थी। हम तकरीबन चालीस लोग थे। सभी स्नातक अंतिम वर्ष के भूगोल के छात्र थे। स्टडी टूर पर हिमाचल प्रदेश जाना था। सो श्मिला के लिए कालका से ट्वाय ट्रेन पकडऩी थी। एक अजब सा उल्लास था। होता भी क्यों न। इतने सारे दोस्तों के साथ पहली बार घूमने जो निकले थे।सभी साथी स्टेशन पर खड़ी छोटी ट्रेन में सवार हुए। तकरीबन साढ़े आठ बजे टे्रन एक लंबी सीटी के साथ चल पड़ी। और शुरू हुआ ऐसा सफर जो आज तक नहीं भूला, न ही कभी भूल पाऊंगा। सब कुछ नया नया सा था। ये बात दीगर है जो वादियां, नजारे, गांव, शहर, टे्रनें, लोग और बोलचाल 2003 में एकदम अलग और नई सी लग रही थी वह 2006 से अपनी सी लगने लगी थी। क्योंकि मेरी किस्मत मुझे चंडीगढ़ में जुनून के लिए खींच चलाई थी। मैं बताता चलूं कि पत्रकारिता मेरा जुनून ही है। खैर...ट्रेन में मैंं अपने दोस्तों के साथ बैठा था। उनमें कुछ लड़के थे और कुछ लड़कियां। मस्ती हो रही थी। मेरे सामने वाली सीट पर एक बुजुर्ग महिला भी बैठीं थी। उनके साथ में यही कोई आठ दस साल का शायद उनका पोता रहा होगा वह भी बैठा था। वह दादी हम लोगों की शैतानियों को देखती और फिर मुस्कुराने लगती। वैसे तो शिमला तक का अमूमन सफर इस ट्रेन से पांच घंटे का होता है। चूंकि ये हम लोगों का पहला सफर था शायद इसीलिए बहुत लंबा हो गया। ट्वॉय ट्रेन कालका से चलकर इस रूट पर पडऩे वाले सनवारा स्टेशन पर जाकर रुक गई। समय यही कोई उस वक्त साढ़े दस बजे का रहा होगा। ट्रेन कछ देर तक नहीं चली। जानकारी लेने के बाद पता चला कि ट्रेन का इंजन खराब हो गया है। शिमला से दूसरा इंजन आएगा तभी ट्रेन चलेगी। हम लोगों ने कहा कि चलो...बहुत ही अच्छा है। पहाड़ों के बीच रुककर खूब मस्ती करेंगे। हम लोगों ने की भी खूब मस्ती। छह घंटे गुजर गए यानीकि साढ़े चार बजने को हो गए। तब तक इंजन नहीं आया था। अक्टूबर का महीना था सो हल्की सी ठंड भी होने लगी थी। कुछ समय बाद इंजन भी आ गया और ट्रेन एक बार फिर चल पड़ी। उसी सीट पर मैं जाकर बैठ गया जहां पर पहले बैठा था। सामने वहीं दादी बैठी हुई थी। उनके पास कुछ सामान था। वह बार बार अपने पास रखे सामान को सहेज लेती थी क्योंकि ट्रेन के हिलने डुलने पर वह इधर उधर हो जाता था। मैने उनसे पूछा कि दादी अगर इसमें कुछ टूटने वाला सामान हो तो मेरी सीट पर रख दीजिए मैं संभाल लूंगा। तो उन्होंने कहा कि बेटा...कुछ टूटने वाला नहीं है। इसमें तो मेरी बेटी की करवा चौथ की होने वाली पूजा का सामान है। जो कि मुझे उसके घर पर देना है। मेरी बेटी का पहला करवा चौथ है। पूजा का सामान मां के घर से ही जाता है। सो मैं लेके जा रही है। मैने उनकी बात को सुनकर सिर्फ अच्छा कह कर बाते करने मे लग गया। शाम के सात बज रहे थे। हम लोगों की ट्रेन शिमला नहीं पहुंची थी। पता चला कि अभी पहुंचते हुए एक से सवा घंटा और लग जाएगा। दादी ने भी पूछा कि बेटा कितना समय और लगेगा तो मैने बताया सवा घंटे। इतना सुनकर उन्होंने ट्रेन से बाहर की ओर झांका। पहाडों को अंधेरे ने अपने आगोश में ले लिया था। कोई गांव आता था तो उसकी लाइटें ही टिमटिमाती हुई नजर आती थी। वह बार बार कुछ खास देखने की कोशिश कर रहीं थी। मैने फिर उनसे कहा कि हम लोग हैं आपके साथ इसलिए रात को परेशान होने की जरूरत नहीं है। तो उन्होंने बताया कि...बेटा मैं अपने लिए परेशान नहीं हो रही हूं...मैं तो अपनी उस बेटी के लिए परेशान हूं...जिसका आज पहला करवा चौथ का व्रत है...पौर पूजा का सारा सामान मेेरे पास है। चांद निकलने को है...पता नहीं कैसे होगी मेरी बेटी की पूजा...बस मैं यही बार बार देख रही हूं कि कहीं चांद तो नहीं निकल आया। उनका इतना सुनना वहां मौजूद सभी लोग ने बाहर से चांद को देखने की कोशिश की और कहा कि दादी अभी चांद नहीं निकला है। ट्रेन तकरीबन सवा आठ बजे शिमला स्टेशन पर पहुंची। ठंड मानों शरीर को चीर रही हो। हम सभी लोग ट्रेन से उतरे। अपने सामान के साथ उन दादी का सामान भी स्टेशन पर उतार कर बाहर लेकर आए। एक बार फिर से आसमान की ओर देखा तो चांद नहीं निकला था...उनका दामाद दादी को लेने स्टेशन पर आया था। उससे परिचय भी हुआ...दादी अपनी बेटी के घर की ओर चल पड़ी...और हम लोग अपनी उस ठिकाने की ओर जहां पर रात बसर करनी थी...मेरा होटल थोड़ा ऊंचाई पर था...ऊपर चढ़ ही रहा था तो देखा कि आसमान में पूरब दिशा से हल्की सी रोशनी हो रही है....ये रोशनी उस अंगड़ाई लेते हुए चांद की थी जो आज अनगिनत सुहागिनों को दीदार कराने के लिए निकल चुका था...चांद को देखकर बस दिल में एक ही बात रह रह कर कौंध रही थी कि पता नहींं वह दादी कहां तक पहुंची होंगी...घर पहुंच गईं होंगी या उनको भी हमारी तरह हल्की सी रोशनी के साथ चांद निकलता हुआ दिखा होगा......।आज इस घटना को छह बरस होने को हैं। मैं अब अक्सर उन्ही राहों से गुजरता हूं...जहां पर छह साल पहले जाते हुए कुछ एक दादी की व्यथा को महसूस किया था....तो बरबस ही वो बूढ़ी दादी का चेहरा सामने आ जाता है और रह रह कर सिर्फ यही सोंचने को मजबूर हो जाता हूं कि...उनकी बेटी की पहली करवा चौथ की पूजा कैसे हुई होगी....चांद को देखकर या..........................!

Saturday, August 29, 2009

यहां गन्ने के रस को जूस कहते हैं

....गोलू बेटा...चलो अभयुर का एक चक्कर लगाके आता हूं। ठीक है सर....एक छोटी सी खबर बची है। उसको लिख लूं फिर चलता हूं। ऐसा कहकर मैं अपनी उस छोटी सी खबर को लिखने लग जाता था। और वो सर भी अंबाला एडीशन के तैयार किए हुए पेज चेक करने लग जाते थे। कुछ देर बाद वो उन्होंने चैंबर से उन्होंने झांककर देखा और फिर दबी आवाज में कहा कि गोलुआ रे...चलना नहीं है। वहां गरम गरम जलेबी खाएंगे। बड़ा अपना सा लगता है उस इलाके में। मैंं जिनकी यहां पर बात कर रहा हूं उनका नाम तो नहीं बताऊंगा। लेकिन हकीकत ये है कि वो इंडिया के पेरिस जैसे शब्दों से पहचाने जाने वाले शहर में अपने असली देश की उस खुश्बू को ढ़ूढंना चाहते थे। जो अपने शहर लखनऊ के अमीनाबाद से लेकर हजरतगंज के नरही जैसे इलाको में दिखती है। खाने की सोंधीं सोंधी खुश्बू। बडे बड़े कढ़ाओ में उबलता दूध और उसकी मलाई पर पड़ी केसर। पास में रखी रबड़ी। बन रही गरम गरम इमरती। शकर के जलाव में डूबी जलेबी। समोसा, खस्ता और आलू। चाय के साथ पाव और मक्कखन और भी बहुत कुछ...। खैर मैं सर के साथ निकल पड़ता था उस अभयपुर में जो पंचकूला का एक गांव था। लेकिन वह अब पंचकूला का हिस्सा हो गया हे लेकिन रौनक अभी भी गांव जैसी ही है। पतली पतली गलियां। गलियों में दुकाने। घरों के आगे चारपाई से लेकर कुर्सी डाले बैठे लोग। चाय और समासे की दुकाने। ठेले पर बनती जलेबियां। गन्ने का रस बेचता दुकानदार। गन्ने के रस से याद आया। इंडिया का पेरिस के नाम से पुकारे जाने वाले इस शहर में गन्ने का रस नहीं बल्कि गन्ने का जूस कहा जाता है। हम लोग तकरीबन बीस से पच्चीस मिनट के भीतर पूरे अभयपुर का एक चक्कर लगाकर अपने दफ्तर लौटने लगते थे। दफ्तर केपास से ही रेलवे की लाइन भी गुजरती थी। और अमूमन रात को वापस आते वक्त ही लखनऊ को जाने वाली ट्रेन भी गुजरती थी। उसको देखकर वो अक्सर कहा करते थे...बेटा ये अपने घर को ट्रेन जाती है। उसी घर को जहां पर हर गली में भारत बसता है। जहां हर सुबह जिंदगी को जीने के लिए नई जंग शुरू होती है। कोई मोटा माल कमा कर जिंदगी को गालियां देता है तो कोई रोटी के चंद टुकड़ों पर ही अपनी जिंदगी गुजार कर खुश है। महलों से लेकर झुग्गी झोपडिय़ों में जिंदगी के असली रंग बिखरे हुएहैं। ऐसा शहर जहां पर मर्सिडीज से लेकर टूटी हुई साइकिलें और ऑडी से लेकर रिक्शे एक ही सड़कपर चलते हैं। खुशनसीब हैं वो रिक्शा और साइकिल वाले जिनको इंडिया के पेरिस में महंगी मंहगी सड़कों र चलने से रोक दिया जाता है। लेकिन वह यहां पर एकता के धागे में बंधे हुए साथ चलते तो हैं। उस ट्रेन को देखकर वो कई बार ये भी कहते थे कि...पता नहीं ये कब मुझे अपने साथ मेरे देश लेके जाएगी...। लेकिन वो दिन कुछ दिनों बाद आ ही गया...में उनको स्टेशन पर छोडऩे गया था...उनकी आंखों मेंआंसू थे...तो एक ओर चमक भी थी। आंसू थे उस पेरिस में इंडिया को खोजने की खत्म हुई कवायद के।और चमक थी जिंदगी के असली रंगों को देखने की। जो कुछ सालों के लिए उनकी आंखों से ओझिल हो गई थी...तभी ट्रेन की सीटी बजती है और वो ये कहते हुए ट्रेन के डिब्बें में चढ़ जाते हें कि...अब पता नहीं कब आना होगा...लेकिन बहुत मिस करूंगा यहां बिताएं हर पल हर लम्हें........

Friday, August 28, 2009

और रब्बो दोबारा नहीं दिखी...

उसकी उम्र यही कोई सात आठ साल की रही होगी। एक दिन मेरे पास लिखने के लिए कोई खास खबर नहीं थी। सो सोंचा क्यों न पीजीआई की उस सराय में चला जाए जहां पर बहुत से ऐसे मरीज मिल जाते हैं जो सालों से किसी न किसी वजह से इलाज नहीं करवा पाते। इनमें से बहुत से लोग गरीबी के कारण धक्के खाते रहते हैं। यही मान कर गया था कि कोई ऐसा मरीज मिल जाएगा जो पैसों के अभाव में इलाज नहीं करा पा रहा होगा। खबर लिखूंगा तो शायद उसकी मदद हो जाए। चंडीगढ़ के पीजीआई की सराय पहुंचा। वहां कई लोंगों से मिला। किसी ने बताया कि डॉक्टर ने कहा है कि ज्यादा दिन इलाज चलेगा इसलिए रुका हूं तो कोई और वजह बता रहा था। अचानक मेरी नजर उस छोटी सी बच्ची पर पड़़ी जो नमाज अदा कर रही थी। कुछ देर उसको देखता रहा। नमाज के बाद मैं उसके पास गया। पूंछा कि किसके साथ हो तो उसने पास में लेटे एक बीस साल के युवक की ओर इशारा करते हुए बताया कि ये मेरा भाई है। इसके इलाज के लिए ही पीजीआई में पिछले एक साल से रुके हैं। उसने बताया कि अब्बा भी साथ में हैं। लेकिन वह दिन में रिक्शा चलाते हैं। लड़की का नाम रब्बो था। रब्बो कहती है कि उसके अब्बा रिक्शा सिर्फ भैया के इलाज में आने वाले खर्चे को पूरा करने के लिए चलाते हैं। क्योंकि उसके पास जितना भी रुपया था सब खत्म हो गया है। इतना कह कर वह अपने गालों पर आए आंसुओं को पोंछ लेती है। फिर अचानक उसने मुझसे पूछा कि भैया आप क्या करते हो...क्या आप डॉक्टर हो...मेरा हाथ पकड़ कर उसने कहा कि भैया...आप मेरे भाई को ठीक कर दो न...चंद सेकेंड में कई सवाल और हर सवाल के जवाब में वह सिर्फ यही सुनना चाहती थी कि...रब्बो तुम चिंता न करो तुम्हारा भाई ठीक हो जाएगा। मैं सच बताऊं तो गया इसी उद्देश्य से था कि जिस मरीज के बारे में अखबार में मदद के लिए लिखूंगा उसको मदद मिल जाएगी। लेकिन ये नहीं सोंचा था कि ऐसा भी कोई मिल जाएगा जो सिर्फ और सिर्फ मेरी ही मदद का इंतजार करेगा। मुझे एक अंदर से डर लग रहा था कि पता नहीं खबर छपने के बाद मदद मिलेगी भी या नहीं...कई बार रिस्पांस नहीं आता है। खैर मैने उसको ढंाढस बंधाया और अपने बारे में बताया कि मैं डॉक्टर नहीं बल्कि पत्रकार हूं। मुझे तो यह भी नहीं पता कि वह पत्रकार का मतलब भी समझती थी या नहीं। खैर, अगले दिन मेरे अखबार में रब्बो के भाई की खबर प्रकाशित हुई। पीजीआई प्र्रशासन से मेरे पास फोन आने लगे कि जिस मरीज की आपने खबर प्रकाशित की है उसकी मदद को बहुत से लोग आगे आ रहे हैं। मुझे भी अच्छा लगा कि चलो...कम से कम उस मासूम सी बहन को अब ये लगने लगा होगा कि उसका भाई ठीक हो जाएगा। उसके बाद मैं रोजाना की तरह अपना रूटीन क काम करने लगा। करीब एक महीने बाद मैंने ऐसे ही पीजीआई में घूमते हुए सोंचा कि चलो रब्बो और उसके भाई का हाल चाल ले लूं। वहां पहुंचा तो देखा कि वहां कोई नहीं है। सराय की देखरेख करने वाले ने बताया कि...वो लोग तो अपने गांव वापस चले गए...फिर उसने जो बताया उसके बाद मैं स्तब्ध रह गया...वह बताता चला गया और मैं...मैं उसमें से सिर्फ यही सुन पाया कि...रब्बो के भाई की तो डेथ हुए कई दिन हो गए हैं...वह अब इस दुनिया में नहीं रहा...

Monday, July 27, 2009

ब्लाग की दुनिया में प्रवेश

बहुत दिन हुए। ब्लाग बना लिया था। लेकिन कुछ लिख नहीं पाया। एक कारण तकनीकी था। तो दूसरा पारिवारिवक व्यस्तताएं। अब ब्लाग की दुनिया में प्रवेश कर रहा हूं। और ब्लागर साथियों से आशा है कि सहयोग देंगे।