Friday, August 28, 2009

और रब्बो दोबारा नहीं दिखी...

उसकी उम्र यही कोई सात आठ साल की रही होगी। एक दिन मेरे पास लिखने के लिए कोई खास खबर नहीं थी। सो सोंचा क्यों न पीजीआई की उस सराय में चला जाए जहां पर बहुत से ऐसे मरीज मिल जाते हैं जो सालों से किसी न किसी वजह से इलाज नहीं करवा पाते। इनमें से बहुत से लोग गरीबी के कारण धक्के खाते रहते हैं। यही मान कर गया था कि कोई ऐसा मरीज मिल जाएगा जो पैसों के अभाव में इलाज नहीं करा पा रहा होगा। खबर लिखूंगा तो शायद उसकी मदद हो जाए। चंडीगढ़ के पीजीआई की सराय पहुंचा। वहां कई लोंगों से मिला। किसी ने बताया कि डॉक्टर ने कहा है कि ज्यादा दिन इलाज चलेगा इसलिए रुका हूं तो कोई और वजह बता रहा था। अचानक मेरी नजर उस छोटी सी बच्ची पर पड़़ी जो नमाज अदा कर रही थी। कुछ देर उसको देखता रहा। नमाज के बाद मैं उसके पास गया। पूंछा कि किसके साथ हो तो उसने पास में लेटे एक बीस साल के युवक की ओर इशारा करते हुए बताया कि ये मेरा भाई है। इसके इलाज के लिए ही पीजीआई में पिछले एक साल से रुके हैं। उसने बताया कि अब्बा भी साथ में हैं। लेकिन वह दिन में रिक्शा चलाते हैं। लड़की का नाम रब्बो था। रब्बो कहती है कि उसके अब्बा रिक्शा सिर्फ भैया के इलाज में आने वाले खर्चे को पूरा करने के लिए चलाते हैं। क्योंकि उसके पास जितना भी रुपया था सब खत्म हो गया है। इतना कह कर वह अपने गालों पर आए आंसुओं को पोंछ लेती है। फिर अचानक उसने मुझसे पूछा कि भैया आप क्या करते हो...क्या आप डॉक्टर हो...मेरा हाथ पकड़ कर उसने कहा कि भैया...आप मेरे भाई को ठीक कर दो न...चंद सेकेंड में कई सवाल और हर सवाल के जवाब में वह सिर्फ यही सुनना चाहती थी कि...रब्बो तुम चिंता न करो तुम्हारा भाई ठीक हो जाएगा। मैं सच बताऊं तो गया इसी उद्देश्य से था कि जिस मरीज के बारे में अखबार में मदद के लिए लिखूंगा उसको मदद मिल जाएगी। लेकिन ये नहीं सोंचा था कि ऐसा भी कोई मिल जाएगा जो सिर्फ और सिर्फ मेरी ही मदद का इंतजार करेगा। मुझे एक अंदर से डर लग रहा था कि पता नहीं खबर छपने के बाद मदद मिलेगी भी या नहीं...कई बार रिस्पांस नहीं आता है। खैर मैने उसको ढंाढस बंधाया और अपने बारे में बताया कि मैं डॉक्टर नहीं बल्कि पत्रकार हूं। मुझे तो यह भी नहीं पता कि वह पत्रकार का मतलब भी समझती थी या नहीं। खैर, अगले दिन मेरे अखबार में रब्बो के भाई की खबर प्रकाशित हुई। पीजीआई प्र्रशासन से मेरे पास फोन आने लगे कि जिस मरीज की आपने खबर प्रकाशित की है उसकी मदद को बहुत से लोग आगे आ रहे हैं। मुझे भी अच्छा लगा कि चलो...कम से कम उस मासूम सी बहन को अब ये लगने लगा होगा कि उसका भाई ठीक हो जाएगा। उसके बाद मैं रोजाना की तरह अपना रूटीन क काम करने लगा। करीब एक महीने बाद मैंने ऐसे ही पीजीआई में घूमते हुए सोंचा कि चलो रब्बो और उसके भाई का हाल चाल ले लूं। वहां पहुंचा तो देखा कि वहां कोई नहीं है। सराय की देखरेख करने वाले ने बताया कि...वो लोग तो अपने गांव वापस चले गए...फिर उसने जो बताया उसके बाद मैं स्तब्ध रह गया...वह बताता चला गया और मैं...मैं उसमें से सिर्फ यही सुन पाया कि...रब्बो के भाई की तो डेथ हुए कई दिन हो गए हैं...वह अब इस दुनिया में नहीं रहा...

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