Tuesday, February 23, 2010

...वो कैंटीन की स्टोरी

दीवाली से कुछ रोज पहले की ही बात है। हमेशा की भांति मार्निंग मीटिंग में पहुंचा और अपनी ओर से एक धांसू सा स्टोरी आइडिया फेंका। चूंकि उन दिनों शहर के बेहतरीन होटलों में बनने वाले फूड आइटम की असलियत खोलने की 'पड़तालÓ नामक सीरीज सुपर हिट हुई थी। प्रशासन ने हर एक खबर को संज्ञान में लेते हुए त्वरित कार्रवाईयां भी की थी। इसलिए मनोबल भी खूब बढ़ा हुआ था। मीटिंग में बॉस ने उसी सीरीज की एक और कड़ी के तौर पर स्टोरी को बेहतर ढंग से कवर करने को कहा। सो जुट गया उस स्टोरी की तह तक जाने में।
दरअसल ये स्टोरी थी उस कैंटीन मालिक तथा प्रशासन की मिलीभगत की जो कि अस्पताल के नाम पर कैंटीन खोलने के बाद उसको किसी दूसरे परपज के लिए चलाने लगा था। कैंटीन मालिक ने अस्पताल परिसर की बजाए शहर की सबसे भीड़ भाड़ वाली प्रमुख मार्केट की ओर अपनी कैंटीन कम रेस्टोरेंट को शिफ्ट कर दिया। कहानी का जिष्टï था कि जिनके लिए ये सुविधा शुरू की गई वह अभी भी उससे वंचित हैं और उक्त कैंटीन मालिक मरीजों के नाम पर सब्सिडी पाकर अपना धंधा चमका रहा है।
इस मामले की पूरी खबर मैंने अखबार में प्रमुखता से प्रकाशित की। खबर छपते ही प्रशासन पुन: हरकत में आ गया। स्वास्थ्य विभाग ने आनन फानन में उस कैंटीन के आवंटन के कागजात चेक किए और पाया कि जो कुछ अखबार में छपा है वह सही है। इसलिए विभाग ने ततकाल ही उस कैंटीन का ठेका निरस्त कर उसको ब्लैकलिस्ट कर दिया। इसी केसाथ वह कैंटीन बंद हो गई। एक बार फिर से खबर के तात्कालिक असर पर पर बधाईयां मिली।
खैर, फिर वहीं रूटीन शुरू हो गया। रोज की भांति वहीं मीटिंग, वहीं स्टोरी आइडिया और दिन भर काम करके शाम को खबरों का फाइल करना। खबर छपने के तीन दिन बाद अचानक मीटिंग के बाद मेरे पास बॉस जो कि हमारे सिटी इंचार्ज थे, उनका फोन आया। (मैं जिन बॉस की बात कर रहा हूं वह इस वक्त उत्तर प्रदेश की एक बड़ी यूनिट के संपादक हैं) उन्होंने जो कुछ भी बताया वह मुझे सिर्फ और सिर्फ स्तब्ध करने वाली खबर थी। उन्होंने बताया कि बेटा...जो हमने कैंटीन वाली स्टोरी की थी उसका आज मालिक आया था। अपने दोनों बेटों के कंधो का सहारा लेकर। उसको इस खबर के बाद लकवा मार गया। उसका बांया अंग पैरालाइज हो चुका है। बॉस ने बताया कि वह जो कुछ बोल रहा था उससे इतना ही समझ में आ रहा था कि...अब मेरे बच्चों का क्या होगा। उसकी आंखों से निरंतर आंसू बह रहे थे...।
इतना सुनते ही मेरे दिमाग में सिर्फ उसी व्यक्ति की तस्वीर घूमने लगी। जो उस स्टोरी को करने के दौरान वहीं व्यक्ति अपनी कैंटीन की फोटो न करने देने के लिए मेरी बाइक के सामने आ गया था। मेरे फोटोजर्नलिस्ट से कैमरा छींनने लगा था। ऊंची ऊंची आवाज में लडऩे लगा था...आज वहीं...। इतना सुनकर मेरे मुंह से अनायास फोन पर यही निकला कि...सर...अब मैं पत्रकारिता नहीं करूंगा...छोंड़ दूंगा ये प्रोफेशन...वापस अपने घर चला जाऊंगा, लेकिन अब ऐसा प्रोफेशन नहीं करूंगा। मैं ये बात अपने बॉस से कह रहा था लेकिन वह ये बात किसी से कह नहीं सकते थे। क्योंकि वहीं सब कुछ उनकेजेहन में भी चल रहा था। वह मुझसे ज्यादा परेशान थे। उन्होंने कहा भी कि स्टोरी तो तुमने की है लेकिन करवाई तो मैंने ही हैं...शाम को आफिस पहुंचा...काम में तो जी लग नहीं रहा था। मेरे दिमाग में बार बार यही आ रहा था कि कुछ दिनों बाद दीवाली है। क्या आलम होगा उस घर में। सोच सोच कर कम्प्यूटर से उठ कर बाहर आ जाता था...।
सो अगले दिन जो मैंने किया मुझे नहीं मालूम कितना सही था कितना गलत। मैंने स्वास्थ्य सचिव से कहकर उस कैंटीन के रद्द हुए लाइसेंस को दोबारा मान्यता दिलवाई। उसकी फर्म को ब्लैकलिस्ट से बाहर करवाया। मुझे नहीं पता था कि ये वैध था या अवैध लेकिन उसको बगैर टेंडर के दोबारा उसी हॉस्पिटल का ठेका एक साल की बजाए तीन साल का दिलवाया। प्रशासन ने लचीला रुख अख्तियार करते हुए कैंटीन कहीं भी चलाने की लिखित अनुमति दे दी...। पश्चाताप के लिए मैंने ये सब करने की अनुमति अपने बॉस से ले ली थी। लेकिन मुझे और मेरे बॉस को आज भी इस बात का अहसास है कि जो हुआ वह बहुत गलत था...उसका प्रायश्चित कभी नहीं हो सकेगा...लेकिन सुनने में आया था कि अब वह कैंटीन मालिक स्वस्थ है तो कुछ राहत मिली।
आज भी जब मैं कोई स्टोरी करने जाता हूं तो इस बात का पूरा ख्याल रखता हूं कि कहीं कोई हमारी कहानी के चक्कर में ऐसा व्यक्ति न आ जाए जो कि अपनी थोड़ी सी गलती के लिए इतनी बड़ी सजा भुगतने लगे...

Sunday, February 21, 2010

इमली के पेड़ पर यादों क झुरमुट

वह इमली का पेड़ आज भी है। जिसने मुझे अपने बाबा की उंगली पकड़ कर लडख़ड़ाते हुए खेतों में जाते हुए देखा था। मुझे आज भी कुछ कुछ याद आ रहा है कि जब मेरे बाबा खेतों में खाद डालने जाते थे तो मैं भी उनके साथ बैलगाड़ी पर पीछे से चढ़ जाता था। बैलों को हांकना नहीं आता था लेकिन उनके साथ कोशिश किया करता था। बाबा खेतों में खाद डालते थे और मैं चुपचाप उतर कर उसी इमली के पेड़ के नीचे बैठकर उसकी पत्तियों को खाता था। बड़ी खट्टïी पत्तियां होती थी सो ढेर सारी रख लेता था। जो कि घर पर वापस आकर भी खाता था। कभी कभार इसके लिए डांट भी पड़ती थी लेकिन...।
समय बीतता गया और सब कुछ बदलता रहा। मैं गांव से अपने पिता जी के पास शहर पहुंच गया। लेकिन हर छुट्टïी पर मैं पिता जी के साथ जिद करके साइकिल पर गांव जरूर जाता था। गांव जाता तो फिर उनके साथ खेतों पर भी जाता था। उसी इमली के पेड़ की पत्तियां खाता और अगर इमलियां लगी होती तो पिता जी से जिदकर के दो चार तुड़वा लेता था। धीरे धीरे पढ़ाई के दौरान स्कूल की ऊपरी कक्षाओं में पहुुंच गया तो गांव भी जाना कुछ कम हो गया। पिता जी पहले सरकारी अध्यापक थे लेकिन बाद में उन्होंने नौकरी छोड़कर अपना व्यवसाय शुरू कर लिया। लेकिन मैंने जबसे होश संभाला तब से मैंने पिता जी को व्यवसाय करते ही देखा है जो कि आज भी अनवरत जारी है।
शायद समय और जरूरी सुख सुविधाओ के अभाव के कारण मेरे बाबा और दादी अम्मा को भी पिता जी ने गांव से शहर में बुला लिया। वैसे मेरे बाबा, दादी अम्मा और पिताजी तो गांव जाया करते थे लेकिन मैं किसी कार्यक्रम में ही ले जाया जाता था। प्रमुख कारण सिर्फ स्कूल होता था। बैलगाड़ी...साइकिल...और अब स्कूटर। मेरे पिता जी के पास प्रिया स्कूटर था। मैं कुछ बड़ा हुआ था सो उनको पीछे बिठाकर चलाने लगा था। जब गांव जाता तो हमेशा की भांति उन्हीं खेतों की ओर जाता था जहां पर कभी बाबा के साथ बैलगाड़ी पर जाया करता था। उसी पेड़ के नीचे अब मै स्कूटर लगाता था और आराम से खेतों से वापस आ जाता था। स्कूटर से मोटरसाइकिल आई। तब तक मैं भी जवान हो गया था।
कुछ साल पहले मैं अपने गांव एक लंबे समय बाद शायद आठ नौ साल बाद गया। इस बार मैं कार पर था। मैंने कार को उस जगह पर लगाया जहां पर एक दीमक लगा पेड़ था। पेड़ पूरी तरह से सूख चुका था। छांव के लिए उसकी पत्तियां भी नहीं थी। कुछ बच्चों ने उसकी जड़ के पास एक दो गाय बांध रखी थी। पूरा खेत घूम आया। पिता जी भी थे। वापस आते हुए मैंने उनसे पूछ लिया...पिता जी यहां पर एक इमली का पेड़ हुआ करता था। उन्होंने इशारा करते हुए कहा कि यही तो है सामने...जहां कार खड़ी की है। मैंने उसकी ओर देखा...एकबारबी उस निर्जीव पेड़ के लिए आंखे आंखे भर आईं। मन में वह सालों पहले के दृश्य हल्के हल्के से सजीव हो उठे। जब इसी पेड़ की छांव में मैं बैठकर पत्तियां खाता था। बाबा के साथ। अब न तो बाबा है और न वह बैलगाड़ी। एक इमली का पेड़ था वह भी अपने अस्तित्व के समापन की ओर है...।

हेलो दोस्तों

नमस्कार दोस्तों। एक लंबे अरसे बाद आपसे मुखातिब हो रहा हूं। व्यस्तता के चलते कुछ लिख नहीं सका। इस दौरान मैंने व्यावसायिक होने का एक और प्रमाण दिया। एक बार और संस्थान बदल दिया। वापस उसी अखबार को ज्वाइन किया जहां से चंडीगढ़में शुरुआत की थी। सबकुछ पुराना सा ही लगा। क्योंकि बहुत से लोग अभी भी पुराने थे। इसलिए रमने में जरा भी वक्त नहीं लगा। उसी तरह से काम कर रहा हूूं। कभी स्कोर तो कभी मिसिंग...। जिंदगी...गोइंग आन...