दीवाली से कुछ रोज पहले की ही बात है। हमेशा की भांति मार्निंग मीटिंग में पहुंचा और अपनी ओर से एक धांसू सा स्टोरी आइडिया फेंका। चूंकि उन दिनों शहर के बेहतरीन होटलों में बनने वाले फूड आइटम की असलियत खोलने की 'पड़तालÓ नामक सीरीज सुपर हिट हुई थी। प्रशासन ने हर एक खबर को संज्ञान में लेते हुए त्वरित कार्रवाईयां भी की थी। इसलिए मनोबल भी खूब बढ़ा हुआ था। मीटिंग में बॉस ने उसी सीरीज की एक और कड़ी के तौर पर स्टोरी को बेहतर ढंग से कवर करने को कहा। सो जुट गया उस स्टोरी की तह तक जाने में।
दरअसल ये स्टोरी थी उस कैंटीन मालिक तथा प्रशासन की मिलीभगत की जो कि अस्पताल के नाम पर कैंटीन खोलने के बाद उसको किसी दूसरे परपज के लिए चलाने लगा था। कैंटीन मालिक ने अस्पताल परिसर की बजाए शहर की सबसे भीड़ भाड़ वाली प्रमुख मार्केट की ओर अपनी कैंटीन कम रेस्टोरेंट को शिफ्ट कर दिया। कहानी का जिष्टï था कि जिनके लिए ये सुविधा शुरू की गई वह अभी भी उससे वंचित हैं और उक्त कैंटीन मालिक मरीजों के नाम पर सब्सिडी पाकर अपना धंधा चमका रहा है।
इस मामले की पूरी खबर मैंने अखबार में प्रमुखता से प्रकाशित की। खबर छपते ही प्रशासन पुन: हरकत में आ गया। स्वास्थ्य विभाग ने आनन फानन में उस कैंटीन के आवंटन के कागजात चेक किए और पाया कि जो कुछ अखबार में छपा है वह सही है। इसलिए विभाग ने ततकाल ही उस कैंटीन का ठेका निरस्त कर उसको ब्लैकलिस्ट कर दिया। इसी केसाथ वह कैंटीन बंद हो गई। एक बार फिर से खबर के तात्कालिक असर पर पर बधाईयां मिली।
खैर, फिर वहीं रूटीन शुरू हो गया। रोज की भांति वहीं मीटिंग, वहीं स्टोरी आइडिया और दिन भर काम करके शाम को खबरों का फाइल करना। खबर छपने के तीन दिन बाद अचानक मीटिंग के बाद मेरे पास बॉस जो कि हमारे सिटी इंचार्ज थे, उनका फोन आया। (मैं जिन बॉस की बात कर रहा हूं वह इस वक्त उत्तर प्रदेश की एक बड़ी यूनिट के संपादक हैं) उन्होंने जो कुछ भी बताया वह मुझे सिर्फ और सिर्फ स्तब्ध करने वाली खबर थी। उन्होंने बताया कि बेटा...जो हमने कैंटीन वाली स्टोरी की थी उसका आज मालिक आया था। अपने दोनों बेटों के कंधो का सहारा लेकर। उसको इस खबर के बाद लकवा मार गया। उसका बांया अंग पैरालाइज हो चुका है। बॉस ने बताया कि वह जो कुछ बोल रहा था उससे इतना ही समझ में आ रहा था कि...अब मेरे बच्चों का क्या होगा। उसकी आंखों से निरंतर आंसू बह रहे थे...।
इतना सुनते ही मेरे दिमाग में सिर्फ उसी व्यक्ति की तस्वीर घूमने लगी। जो उस स्टोरी को करने के दौरान वहीं व्यक्ति अपनी कैंटीन की फोटो न करने देने के लिए मेरी बाइक के सामने आ गया था। मेरे फोटोजर्नलिस्ट से कैमरा छींनने लगा था। ऊंची ऊंची आवाज में लडऩे लगा था...आज वहीं...। इतना सुनकर मेरे मुंह से अनायास फोन पर यही निकला कि...सर...अब मैं पत्रकारिता नहीं करूंगा...छोंड़ दूंगा ये प्रोफेशन...वापस अपने घर चला जाऊंगा, लेकिन अब ऐसा प्रोफेशन नहीं करूंगा। मैं ये बात अपने बॉस से कह रहा था लेकिन वह ये बात किसी से कह नहीं सकते थे। क्योंकि वहीं सब कुछ उनकेजेहन में भी चल रहा था। वह मुझसे ज्यादा परेशान थे। उन्होंने कहा भी कि स्टोरी तो तुमने की है लेकिन करवाई तो मैंने ही हैं...शाम को आफिस पहुंचा...काम में तो जी लग नहीं रहा था। मेरे दिमाग में बार बार यही आ रहा था कि कुछ दिनों बाद दीवाली है। क्या आलम होगा उस घर में। सोच सोच कर कम्प्यूटर से उठ कर बाहर आ जाता था...।
सो अगले दिन जो मैंने किया मुझे नहीं मालूम कितना सही था कितना गलत। मैंने स्वास्थ्य सचिव से कहकर उस कैंटीन के रद्द हुए लाइसेंस को दोबारा मान्यता दिलवाई। उसकी फर्म को ब्लैकलिस्ट से बाहर करवाया। मुझे नहीं पता था कि ये वैध था या अवैध लेकिन उसको बगैर टेंडर के दोबारा उसी हॉस्पिटल का ठेका एक साल की बजाए तीन साल का दिलवाया। प्रशासन ने लचीला रुख अख्तियार करते हुए कैंटीन कहीं भी चलाने की लिखित अनुमति दे दी...। पश्चाताप के लिए मैंने ये सब करने की अनुमति अपने बॉस से ले ली थी। लेकिन मुझे और मेरे बॉस को आज भी इस बात का अहसास है कि जो हुआ वह बहुत गलत था...उसका प्रायश्चित कभी नहीं हो सकेगा...लेकिन सुनने में आया था कि अब वह कैंटीन मालिक स्वस्थ है तो कुछ राहत मिली।
आज भी जब मैं कोई स्टोरी करने जाता हूं तो इस बात का पूरा ख्याल रखता हूं कि कहीं कोई हमारी कहानी के चक्कर में ऐसा व्यक्ति न आ जाए जो कि अपनी थोड़ी सी गलती के लिए इतनी बड़ी सजा भुगतने लगे...
3 comments:
canteen ki kahani acchi lagi
acha sansmaran hai
acha sansmaran hai
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