Thursday, January 26, 2012

...क्या बीती होगी उस लाचार पिता पर

उमर यही कोई साठ आठ साल रही होगी उसकी। मटमैली सी नीली कमीज। काला रंग। बाल देखकर अंदाजा लगाना मुश्किल न था कि उसकी हफ्तों से कंघी तक नहीं हुई थी। रात को रह रह कर यह मटमैली नीली कमीज वाला बच्चा कराह उठता। पास में लेटी उसकी दादी उठकर अपने पोते के पेट को सहलाती लेकिन जब राहत नहीं मिली तो बूढ़ी दादी बेचैन हो उठी। तभी इमरजेंसी के डॉक्टर पहुंचे कुछ दवाएं दी और वह बच्चा चुप होकर सो गया।
२० जनवरी को मेरा बेटा भी मेडिकल कॉलेज की इमरजेंसी में दाखिल था। मैं अपी पत्नी के साथ सुबह उठकर बैठा ही था कि देखा वही मटमैली कमीज वाला बच्चा एक बार फिर से दर्द के मारे कराह रहा था। मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने डॉक्टर से कहा कि इसको आकर देखे। चूंकि उस वक्त सुबह के आठ बज रहे थे सो शिफ्ट बदल रही थी इसलिए थोड़ा वक्त लग रहा था। लेकिन थोड़ी देर बाद डॉक्टर ने बच्चे को देखकर कुछ दवाओं को लाने को कहा। एक कागज की पर्ची लेकर नर्स ने पास में खड़े उस बच्चे के पिता को दी। दवा की पर्ची देखकर उस बच्चे के परिजनों में बहुत देर बगैर कुछ बोले ही आंखों ही आंखों में बात होती रही। पता नहीं क्या बात हुई लेकिन जो दूर से लगा कि वह शायद यही था कि मामला कुछ पैसों का है। खैर, बेड पर बैठी बूढ़ी दादी ने अपने बेटे की ओर उन नजरों से देखा कि मानों पूछ रही हो कि बेटा...अब मेरे पोते का इलाज कैसे होगा। चंडीगढ़ में रिक्शा चलाता था उस बच्चे की पिता। उसने कुछ देर तक पर्ची को हाथ में रखा और फिर इधर उधर घूमने लगा। चूंकि मैं यह सब देख रहा था। मन में आया कि एक बार पूंछू। अगर हजार-पांच सौ रुपये देने की जरूरत होगी तो मैं दे दूंगा। ज्यादा रुपयों की जरूरत होगी तो किसी एनजीओ से कहकर या अस्पताल प्रशासन से गुजारिश करके मरीज को पुअर फ्री करवाने की कोशिश करूंगा। लेकिन मेरा बेटा खुद बीमार था। वह डायरिया की वजह बहुत सुस्त था। सो मैंने सोचा कि एक बार मैं अपने बेटे के इलाज के लिए डॉक्टर से बात कर लूं फिर मैं उस बच्चे के घर वालों से बात करूंगा। दोपहर हो गई। तभी मेरी पत्नी ने मुझसे पूछा कि वो जो बच्चा रो रहा था वह बड़ी देर से बेड पर नहीं दिखा। मैंने कहा...गए होंगे कोई टेस्ट करवाने के लिए नीचे। यहां टेस्ट में टाइम ज्यादा लगता है, इसलिए आते ही होंगे। शाम के छह बज गए। मेरे बेटे के डॉक्टर ने यह कहते हुए घर जाने को कह दिया कि अब आपके बेटे की तबियत ठीक है। हम लोगों ने अपना सामान उठाया और बाहर निकलने लगे। उस मटमैली नीली कमीज वाले बच्चे का बेड खाली था। मैंने नर्स से चलते चलते पूछा कि...सिस्टर...ये बच्चा कहां गया। तो उसने कहा...चले गए...शायद ये लोग चले गए। इनके पास पैसे नहीं थे। बगैर बताए ही निकल गए। ये देखिए...इलाज के कागज, दवाएं, रसीद, पर्चिंया...सब कुछ तो यहीं छोड़ गए...।  इतना सुनना था कि मै स्तब्ध रह गया। लेकिन नर्स फिर भी बताने में लगी थी...बड़े ही चालाक होते हैं ये लोग...किसी को पता न चले इसलिए कोई दवाएं भी नहं ले जाते और एक एक करके निकल जाते हैं...मैंने उस नर्स की इन बातों के अलावा कुछ भी नहीं सुना हालांकि वह बोल तो और भी न जाने क्या क्या रही थी। भारी मन से मैं बाहर निकला। बार बार रास्ते मे मैं अपनी पत्नी से यही कहता रहा...यार मैंने उसको उसी वक्त रुपये क्यों नहीं दे दिए। शायद एक दिन की दवा का तो इंतजाम हो जाता...