Sunday, November 4, 2012

काश, ये वोट बैंक होते

अगर भीड़ जीत का पैमाना होती तो शायद इंदिरा गांधी कभी न हारती। बाल ठाकरे जब जब हुंकार भरते पूरा मुंबई समुंदर की लहरों की तरह उनके पास सिमट आता। लेकिन महाराष्ट्र की सत्ता से बेदखल हो गए। मायावती की एक आवाज पर हजारों हजार लोग दौड़े चले आते हैं लेकिन इस वक्त सत्ता को तरस रहीं हैं बहन जी। कभी आंध्र प्रदेश के हैदराबाद को सिलिकॉन वैली बनाने वाले तेलगू देशम पार्टी के चंद्रबाबू नायडू का आज  लोग नाम भूलने लगे। आज की कांग्रेस की रैली में उमड़ी भीड़ को जीत का पैमाना मान लेना जरा जल्दी होगी। मैंने गांवों से बड़े शहरों में होने वाली रैलियां और उसमें जाने वालों की भीड़ देखी है। यकीन मानिए आधे से ज्यादा लोग बड़े शहरों के  रकाब तकाब देखने के जाते हैं। बहुत बड़ी तो नहीं लेकिन छोटी सी राजनैतिक पृष्ठभूमि होने के नाते मैंने देखा हैं अपने गांव से लखनऊ में होने वाली तमाम रैलियों में जाने वालों को। हर बार लोग वहीं होते हैं। बस अंतर सिर्फ हाथो में पकड़े गए झंडे और बैनर का होता है।
आमीन...

Saturday, October 20, 2012

...जो लौट के घर न आए

घर से तार पहुंचा था। पता चला कि सूबेदार सुरिन्दर विर्क के  बेटा हुआ है। विर्क तो मारे खुशी के बल्लियों उछल रहा था। खाना भी शायद ढंग से नहीं खाया था। अपनी बीबी हरप्रीत की फोटो को चांदी सी बिछी बर्फ पर लेटकर खूब चूमा था उसनें। मैं भी वहीं था। विर्क ने कहा...ओए...ढिल्लो..तू ताया बन गया है...ताया...। मुझे गले से लगाया और बर्फ पर गिरा दिया। फिर मेरा हाथ पकड़ कर बैठ गया। चंद सेकेंड की खामोशी के बाद ही एक सिसकती हुई आवाज के साथ विर्क के आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा। मैंने पूछा ओए...विर्क...ये क्या...तू रो रहा है...अरे आज तो जश्न की रात है। विर्क कुछ नहीं बोला। फिर मेरे कंधे को बहुत ही तेजी से पकड़ कर बोला...ढिल्लो...पता नहीं मैं अपने बेटे को देख पाऊंगा भी या नहीं...मैंने तुरंत ही उसका मुंह दबाते हुए कहा...ऐसा न बोल। चंद रोज में जंग खत्म हो जाएगा। हम सब वापस अपने घर चलेंगे। फिर तूं अपने गांव में एक अच्छी सी पार्टी देना। मेरी बातों को सुनकर विर्क हंसा और बोला...ढिल्लो तुझे तो पता ही है क्या हालात हैं। हमारी ब्रिगेड के कई जवान चीनी सैनिकों से लड़ते हुए शहीद हो चुके हैं। उसने नाम बताया...वो...वो...सुखबीर...याद है...चार महीने पहले ही तो शादी हुई थी उसकी...चीनियों ने मार दिया। उसकी बीबी को तो पता भी नहीं होगा शायद। बस इसी का डर है...क्या होगा मेरी बीबी और बच्चे का...मैने कहा तू फिक्र न कर...भारत सरकार ने पंजाब और राजस्थान से कुछ और सेना की टुकडिय़ों को इस इलाके में भेज दिया है। हम लोग ज्यादा हो जाएंगे और चीनियों को मार भगाएंगे। लेकिन उसके दिल में न जाने कैसी उलझन हो रही थी...बोला...पता नहीं मेरा बेटा कैसा होगा...मुझ पर गया होगा या प्रीत पर...। बस जल्दी से युद्ध खत्म हो और मैं अपने घर जाऊं...अपने काके को देखने का बहुत जी कर रहा है।  मंैने उसे बहुत समझाया।
आधी रात बीत चुकी थी। संदेश मिला कि सेलापास के आगे डोएनारा इलाके में चीनी सैनिकों ने फिर से हमला कर दिया। आप लोग फौरन मोर्चा संभालो। मैं तो वायरलेस पर था ही। विर्क  अवनी ब्रिगेड के साथ मोर्चे पर पहुंच गया। युद्ध हुआ। ब्रिगेड के ज्यादातर लोग मारे गए। विर्क भी उनमें से एक था।
आज पचास साल हो गए हैं इस बात को। विर्क का बेटा भी पचास साल का हो गया है। अब कनाडा में सेटल है।  कभी कभार ही आता है इंडिया। सुना है कोई बड़ा बिजनेस करता है। मेरी उम्र भी ८३ साल के करीब है। सुना है कि विर्क की शहादत की खबर उसकी पत्नी नहीं बर्दाश्त कर पाई थी। कुछ दिन बाद ही चल बसी थी। उसके बेटे को उसकी मासी ने पाला था। जो बाद में उसको लेकर कनाडा चली गई थी। १९६२ में हुए भारत-चीन के युद्ध की बातें आज भी जख्मों को हरा कर देती हैं। अगर हमारी सरकार पहले से मुस्तैद होती तो शायद विर्क और उसके जैसे अनगिनत शहीद हुए जवान अपने परिवार को खुशियां दे रहे होते।
(१९६२ में हुए भारत-चीन युद्ध के दौरान मेजर ढिल्लो तवांग इलाके में तैनात थे। उनसे बातचीत पर आधारित )

Tuesday, October 16, 2012

...स्वातघाटी के हर घर में है मलाला

उसको देखने के बाद लगा कि शायद असली गुलाबी रंग ऐसा ही होता है। कभी घर से बाहर कदम न रखने वाली नाजनीन जब पहली बार चंडीगढ़ आई तो उसकी बड़ी बड़ी आंखों में मैंने समंदर से सपने पलते लेते देखे थे। पता नहीं उनके सपनों को पंख लगे भी होंगे या यूं ही कहीं फडफ़ड़ा कर दफन हो गए होंगे उस स्वात घाटी में जहां से वह आई थी।
नाजनीन स्वात घाटी से अपने दो भाईयों खुदाबक्श और शाहिद के साथ २००९ में चंंडीगढ़ में लगे एक ट्रेड फेयर में आई थी। बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन थोड़ी बहुत यादे अभी भी जेहन में हैं नाजनीन, खुदाबक्श और शाहिद से हुई मुलाकात की। नाजनीन की तमन्ना थी कि वह अपने अब्बू और भाईयों के हाथों से बनाई जाने वाली शालों के बिजनेस को नया मुकाम दे। लेकिन उसको एक डर हमेशा बना रहता था कि ऐसा हो नहीं सकता। क्योंकि स्वातघाटी में लड़कियों की पढ़ाई सबसे बड़ा जुर्म है, और बगैर पढ़े बिजनेस को बढ़ाया नहीं जा सकता। जो भाईयों ने पढ़ा था बस उससे ही सीखती थी नाजनीन। नाजनीन ने बताया था कि स्वातघाटी में तालिबानियों के गढ़ पियूचार कस्बे से ही तमाम बंदिशो के संदेश रेडियो पर आते रहते हैं। मुझे याद है उसने यही शब्द कहे थे...मैं अपने अब्बू और भाईयों का हाथ बंटाने के लिए पढूंगी चाहे जो हो जाए...अगर मैं घाटी से निकल कर चंडीगढ़ आ सकती हूं तो मैं वहां पढ़ भी सकती हूं...गजब का कांफीडेंस था उसमें।
अभी कुछ दिन पहले पता चला कि वहां की ऐसी ही एक चौदह साल की लड़की मलाला को तालिबानियों ने गोली मार दी। क्योंकि वह वहां की लड़कियों को पढ़ाने के लिए आगे आ रही थी। मलाला की घटना से मुझे नाजनीन की याद आ गई...पता नहीं उसके सपने सच हुए होंगे या वह भी अभागी मलाला बन चुकी होगी।



Monday, July 23, 2012

भेड़ बकरियों की तरह नहीं, यहां तसल्ली से देखेंगे डॉक्टर साहेब...


अवस्थी...शायद यही सर नेम था उस सिक्योरिटी गार्ड का। जब मैंने अपनी दादी मां को डॉक्टर से दिखलाने के लिए उसको पचास रुपये की घूस दी थी। वह फौरन अंदर गया और चंद मिनट बाद डॉक्टर को कार तक ले आया। जहां मेरी दादी मां बेसुध पड़ी थी। डॉक्टर ने देखा और कहा कि क्लॉटिंग ज्यादा हो गई है। उम्र बहुत ज्यादा है सर्जरी नहीं हो सकती। ऐसा करो...आप, बाहर नीलकंठ मेडिकल स्टोर है, वहा से एक महीने की दवाएं ले जाओ और फिर दिखा लेना।
मैं अपने पिता जी और एक दो अन्य रिश्तेदारों के साथ दवा लेकर वापस अपने कस्बे की ओर दादी को लेकर चल पड़ा। आज से तकरीबन बारह साल पहले मेरी दादी को ब्रेनस्ट्रोक हुआ था। मेरे कस्बे में तो कोई डॉक्टर था नहीं सो पास के सबसे बड़े शहर लखनऊ ही लेकर आना एक रास्ता बचता था। लखनऊ तो दादी मां को लेकर चल दिए लेकिन यह नहीं पता था कि दिखाना किसे है। किसी ने बातचीत में किंगजाार्ज मेडिकल कॉलेज के एक बड़े नामी गिरामी न्यूरो फिजीशियन का नाम बताया था। पहु़च गए उनके दरवाजे पर। लंबी लाइन। सैकडा़ें मरीज। दरवाजे पर एक बंदूकधारी सुरक्षा गार्ड...वही अवस्थी जी...। भीड़ देखकर लगा कि इलाज यहां भी करा पाना बहुत मुश्किल है। एक घंटा...दो घंटा...तीन...चार...जब शाम होने लगी तो मैने वहां खड़े सिक्योरिटी गार्ड से धीरे से पूछा...क्या कोई गुंजाईश है कि डॉक्टर साहब बाहर आकर मेरी दादी मां को देख सकें...वह पिछले चार घंटे से कार में लाचार पड़ी हैं। उसने पहले मेरी ओर देखा...फिर उस कार की ओर जिसमें दादी अचेतावस्था में पड़ी थी...थोड़ा सोच विचार कर मुझे किनारे ले गया और धीरे से कहा कि कुछ चाय पानी कराओंगे...मुझे लगा कि अब रास्ता मिल गया है। शायद मेरी दादी को डॉक्टर साहब देख लें..अवस्थी जी को पचास का नोट थमाया और अवस्थी जी डॉक्टर साहब के कमरे में....। थोड़ी देर में देखा कि छोटे कद के एक मोटे से डॉक्टर साहब आला लेकर कार के पास आ गए। खैर...मेरी दादी का इलाज उन डॉक्टर साहब के पास बहुत दिनों तक चला लेकिन वह मेरी दादी को नहीं बचा सके। इतने दिनों में अवस्थी जी ने दुनिया में काम कराने का एक तरीका जरूर सिखा दिया था।
समय करवट बदलने लगा। मैं पढ़ाई करने के लिए लखनऊ पहुंच गया। हिन्दुस्तान अखबार में बगैर पैसे के काम करने वाला स्ट्रिंगर बन गया। मेरे एक बड़े भाई समान सहयोगी मिले तो उनके साथ हेल्थ बीट में काम करने के लिए मेडिकल कॉलेज जाने लगा। वहां पर उन डॉक्टर साहब से भी मुलाकात होने लगी जिनके सिक्योरिटी गार्ड को पचास रुपये देकर में अपनी दादी को दिखाने जाता था।
समय थोड़ा और तेज चला। मैं लखनऊ के रास्ते चंडीगढ़ अमर उजाला आ गया। हेल्थ बीट में काम करने का मौका मिला। पीजीआई जैसे देश क्या पूरी दुनिया के सबसे बेहतरीन अस्पताल में रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी मिली। उसी दैरान मेरे पीजीआई के एक बहुत करीबी हो चुके डॉक्टर दोस्त कम अंकल को इंडियन एसोसिएशन ऑफ न्यूरोलॉजी का प्रेसीडेंट बनाया गया। मैं उनके दफ्तर में बैठा था। तभी देखा कि कमरे के दरवाजे से एक मोटे से छोटे कद के एक डॉक्टर साहब अंदर घुसे। एक बारगी तो मैं उनको पहचान ही नहीं पाया...लेकिन दिमाग पर जोर डाला तो पाया कि यह तो लखनऊ वाले डॉक्टर साहब हैं। जिनके पास मैं अपनी दादी मां को लेकर जाया करता था। एैनीवे...बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ...पीजीआई वाले डॉक्टर साहब ने मेरा परिचय कराया और उनसे बातचीत शुरू हुई। तब पता चला कि कल से पीजीआई में शुरू होने वाले एथिक्स इन मेडिकल प्रैक्टिस के नेशनल सेमिनार में उक्त डॉक्टर साहब मुख्य वक्ता के तौर पर बोलने आए हैं। ...लखनऊ वाले डॉक्टर साहब पीजीआई के डॉक्टर साहब से अपने कल के होने वाले डिस्कशन के मुख्य बिंदुओं पर चरचा कर रहे थे...वह बार बार इस बात पर जोर दे रहे थे कि सरकार द्वारा मिलने वाला नॉन प्रैक्टिसिंग अलाउंस (प्राइवेट इलाज न करने पर सरकार द्वारा दिए जाने वाले वाला भत्ता ) अब और बढऩा चाहिए। मुझे उनकी इन बातों को सुनकर अपनी दादी मां की झुर्रियों वाला वह चेहरा याद आ रहा था कि मेडिकल कॉलेज के सरकारी डॉक्टर के घर में कैसे घंटों पड़े रहने के बाद इलाज होता था। आज भी याद है वह शब्द...जब सिक्योरिटी गार्ड कहता था...डॉक्टर साहब अभी तो मेडिकल कॉलेज से आए हैं...थोड़ा इंतजार करो...बहुत सही जगह आए हो...अस्पताज में तो भेड़ बकरियों की तरह भीड़ हाती है...घर पर तो बहुत तसल्ली से देखेंगे...
:(    

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Thursday, January 26, 2012

...क्या बीती होगी उस लाचार पिता पर

उमर यही कोई साठ आठ साल रही होगी उसकी। मटमैली सी नीली कमीज। काला रंग। बाल देखकर अंदाजा लगाना मुश्किल न था कि उसकी हफ्तों से कंघी तक नहीं हुई थी। रात को रह रह कर यह मटमैली नीली कमीज वाला बच्चा कराह उठता। पास में लेटी उसकी दादी उठकर अपने पोते के पेट को सहलाती लेकिन जब राहत नहीं मिली तो बूढ़ी दादी बेचैन हो उठी। तभी इमरजेंसी के डॉक्टर पहुंचे कुछ दवाएं दी और वह बच्चा चुप होकर सो गया।
२० जनवरी को मेरा बेटा भी मेडिकल कॉलेज की इमरजेंसी में दाखिल था। मैं अपी पत्नी के साथ सुबह उठकर बैठा ही था कि देखा वही मटमैली कमीज वाला बच्चा एक बार फिर से दर्द के मारे कराह रहा था। मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने डॉक्टर से कहा कि इसको आकर देखे। चूंकि उस वक्त सुबह के आठ बज रहे थे सो शिफ्ट बदल रही थी इसलिए थोड़ा वक्त लग रहा था। लेकिन थोड़ी देर बाद डॉक्टर ने बच्चे को देखकर कुछ दवाओं को लाने को कहा। एक कागज की पर्ची लेकर नर्स ने पास में खड़े उस बच्चे के पिता को दी। दवा की पर्ची देखकर उस बच्चे के परिजनों में बहुत देर बगैर कुछ बोले ही आंखों ही आंखों में बात होती रही। पता नहीं क्या बात हुई लेकिन जो दूर से लगा कि वह शायद यही था कि मामला कुछ पैसों का है। खैर, बेड पर बैठी बूढ़ी दादी ने अपने बेटे की ओर उन नजरों से देखा कि मानों पूछ रही हो कि बेटा...अब मेरे पोते का इलाज कैसे होगा। चंडीगढ़ में रिक्शा चलाता था उस बच्चे की पिता। उसने कुछ देर तक पर्ची को हाथ में रखा और फिर इधर उधर घूमने लगा। चूंकि मैं यह सब देख रहा था। मन में आया कि एक बार पूंछू। अगर हजार-पांच सौ रुपये देने की जरूरत होगी तो मैं दे दूंगा। ज्यादा रुपयों की जरूरत होगी तो किसी एनजीओ से कहकर या अस्पताल प्रशासन से गुजारिश करके मरीज को पुअर फ्री करवाने की कोशिश करूंगा। लेकिन मेरा बेटा खुद बीमार था। वह डायरिया की वजह बहुत सुस्त था। सो मैंने सोचा कि एक बार मैं अपने बेटे के इलाज के लिए डॉक्टर से बात कर लूं फिर मैं उस बच्चे के घर वालों से बात करूंगा। दोपहर हो गई। तभी मेरी पत्नी ने मुझसे पूछा कि वो जो बच्चा रो रहा था वह बड़ी देर से बेड पर नहीं दिखा। मैंने कहा...गए होंगे कोई टेस्ट करवाने के लिए नीचे। यहां टेस्ट में टाइम ज्यादा लगता है, इसलिए आते ही होंगे। शाम के छह बज गए। मेरे बेटे के डॉक्टर ने यह कहते हुए घर जाने को कह दिया कि अब आपके बेटे की तबियत ठीक है। हम लोगों ने अपना सामान उठाया और बाहर निकलने लगे। उस मटमैली नीली कमीज वाले बच्चे का बेड खाली था। मैंने नर्स से चलते चलते पूछा कि...सिस्टर...ये बच्चा कहां गया। तो उसने कहा...चले गए...शायद ये लोग चले गए। इनके पास पैसे नहीं थे। बगैर बताए ही निकल गए। ये देखिए...इलाज के कागज, दवाएं, रसीद, पर्चिंया...सब कुछ तो यहीं छोड़ गए...।  इतना सुनना था कि मै स्तब्ध रह गया। लेकिन नर्स फिर भी बताने में लगी थी...बड़े ही चालाक होते हैं ये लोग...किसी को पता न चले इसलिए कोई दवाएं भी नहं ले जाते और एक एक करके निकल जाते हैं...मैंने उस नर्स की इन बातों के अलावा कुछ भी नहीं सुना हालांकि वह बोल तो और भी न जाने क्या क्या रही थी। भारी मन से मैं बाहर निकला। बार बार रास्ते मे मैं अपनी पत्नी से यही कहता रहा...यार मैंने उसको उसी वक्त रुपये क्यों नहीं दे दिए। शायद एक दिन की दवा का तो इंतजाम हो जाता...