Saturday, August 29, 2009

यहां गन्ने के रस को जूस कहते हैं

....गोलू बेटा...चलो अभयुर का एक चक्कर लगाके आता हूं। ठीक है सर....एक छोटी सी खबर बची है। उसको लिख लूं फिर चलता हूं। ऐसा कहकर मैं अपनी उस छोटी सी खबर को लिखने लग जाता था। और वो सर भी अंबाला एडीशन के तैयार किए हुए पेज चेक करने लग जाते थे। कुछ देर बाद वो उन्होंने चैंबर से उन्होंने झांककर देखा और फिर दबी आवाज में कहा कि गोलुआ रे...चलना नहीं है। वहां गरम गरम जलेबी खाएंगे। बड़ा अपना सा लगता है उस इलाके में। मैंं जिनकी यहां पर बात कर रहा हूं उनका नाम तो नहीं बताऊंगा। लेकिन हकीकत ये है कि वो इंडिया के पेरिस जैसे शब्दों से पहचाने जाने वाले शहर में अपने असली देश की उस खुश्बू को ढ़ूढंना चाहते थे। जो अपने शहर लखनऊ के अमीनाबाद से लेकर हजरतगंज के नरही जैसे इलाको में दिखती है। खाने की सोंधीं सोंधी खुश्बू। बडे बड़े कढ़ाओ में उबलता दूध और उसकी मलाई पर पड़ी केसर। पास में रखी रबड़ी। बन रही गरम गरम इमरती। शकर के जलाव में डूबी जलेबी। समोसा, खस्ता और आलू। चाय के साथ पाव और मक्कखन और भी बहुत कुछ...। खैर मैं सर के साथ निकल पड़ता था उस अभयपुर में जो पंचकूला का एक गांव था। लेकिन वह अब पंचकूला का हिस्सा हो गया हे लेकिन रौनक अभी भी गांव जैसी ही है। पतली पतली गलियां। गलियों में दुकाने। घरों के आगे चारपाई से लेकर कुर्सी डाले बैठे लोग। चाय और समासे की दुकाने। ठेले पर बनती जलेबियां। गन्ने का रस बेचता दुकानदार। गन्ने के रस से याद आया। इंडिया का पेरिस के नाम से पुकारे जाने वाले इस शहर में गन्ने का रस नहीं बल्कि गन्ने का जूस कहा जाता है। हम लोग तकरीबन बीस से पच्चीस मिनट के भीतर पूरे अभयपुर का एक चक्कर लगाकर अपने दफ्तर लौटने लगते थे। दफ्तर केपास से ही रेलवे की लाइन भी गुजरती थी। और अमूमन रात को वापस आते वक्त ही लखनऊ को जाने वाली ट्रेन भी गुजरती थी। उसको देखकर वो अक्सर कहा करते थे...बेटा ये अपने घर को ट्रेन जाती है। उसी घर को जहां पर हर गली में भारत बसता है। जहां हर सुबह जिंदगी को जीने के लिए नई जंग शुरू होती है। कोई मोटा माल कमा कर जिंदगी को गालियां देता है तो कोई रोटी के चंद टुकड़ों पर ही अपनी जिंदगी गुजार कर खुश है। महलों से लेकर झुग्गी झोपडिय़ों में जिंदगी के असली रंग बिखरे हुएहैं। ऐसा शहर जहां पर मर्सिडीज से लेकर टूटी हुई साइकिलें और ऑडी से लेकर रिक्शे एक ही सड़कपर चलते हैं। खुशनसीब हैं वो रिक्शा और साइकिल वाले जिनको इंडिया के पेरिस में महंगी मंहगी सड़कों र चलने से रोक दिया जाता है। लेकिन वह यहां पर एकता के धागे में बंधे हुए साथ चलते तो हैं। उस ट्रेन को देखकर वो कई बार ये भी कहते थे कि...पता नहीं ये कब मुझे अपने साथ मेरे देश लेके जाएगी...। लेकिन वो दिन कुछ दिनों बाद आ ही गया...में उनको स्टेशन पर छोडऩे गया था...उनकी आंखों मेंआंसू थे...तो एक ओर चमक भी थी। आंसू थे उस पेरिस में इंडिया को खोजने की खत्म हुई कवायद के।और चमक थी जिंदगी के असली रंगों को देखने की। जो कुछ सालों के लिए उनकी आंखों से ओझिल हो गई थी...तभी ट्रेन की सीटी बजती है और वो ये कहते हुए ट्रेन के डिब्बें में चढ़ जाते हें कि...अब पता नहीं कब आना होगा...लेकिन बहुत मिस करूंगा यहां बिताएं हर पल हर लम्हें........

6 comments:

Unknown said...

Bahut Barhia... Blog ki dunia me aapka swagat hai...isi Tarah Likhte rahiye.

http://hellomithilaa.blogspot.com
Mithilak Gap Maithili Me

http://mastgaane.blogspot.com
Manpasand Gaane

http://muskuraahat.blogspot.com
Aapke Bheje Photo

आदित्य आफ़ताब "इश्क़" aditya aaftab 'ishq' said...

ये इंडिया का पेरिस कहाँ हैं भई ........स्वागत !

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

अच्छी शुरुवात है. कृपया लेख के बीच पैरा दे तो पठनीयता बनेगी.

- सुलभ ( यादों का इन्द्रजाल..)

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

narayan narayan

जगदीश त्रिपाठी said...

चलो तुमने लिखना तो शुरू किया। बधाई।

Unknown said...

bata du kiske bare me likha hai? ha ha ha