Saturday, February 26, 2011

वो दिन कहां से लाऊं...पार्ट-१

काम करने के बाद रात को दफ्तर से घर लौट रहा था। रात दस-सवा दस बजे के बाद अक्सर सुनसान हो जाने वाली चंडीगढ़ की चौड़ी सड़कों पर घर तक सुकून से पहुुचने का एक ही जरिया था...एफएम। कार का एफएम ऑन कर दिया। उसमें कुछ बहुत ही पुराने किस्से सुनाए जा रहे थे। ऐसे किस्से जो रात के अंधेरे में सुनने के बाद एक बारगी हर शख्स अपने पुराने दिनों में पहुचाने को मजबूर कर दें। मैं भी उन यादों के झरोखे में पहुंच गया जो बरसों पहले एक छोटे से कस्बे में बना था। घर पहुंचते ही सबसे पहले मै यादों के पिटारे से कुछ निकालने लगा...जो निकला उसको आपकी खातिर कुछ यूं लिख दिया...। 
 मेरी उम्र यही कोई आठ या नौ साल की थी। मैं अपनी बहन (जो मुझसे छोटी है) के साथ छत पर बैठा था। चार बजने को थे। यकीन मानिए हमेशा चार बजने के समय 0मैं यही सोचता था...काश...ये चार न बजा करें। सीधे तीन बजने के बाद पांच बज जाया करें। दरअसल चार बजे मेरे एक टीचर घर पर ट्यूशन पढ़ाने आते थे। और मैं हमेशा बोरिंग और डांट खाने वाली ट्यूशन से बचने की कोशिश करता था। 
खैर साइकिल की घंटी बजी। घंटी की आवाज सुनी और छत पर से अपने घर के आस पास खाली पड़े मैदान में लाचार होकर उन बच्चों को देखा जो मस्त होकर खेल रहे थे...और मैं...बैग उठाऊंगा और पढऩे जाऊंगा। बड़ी ही जलन हुई उनको देखकर। लेकिन नीचे आया। मेरी बहन भी मेरे साथ ही ट्यूशन पढ़ती थी। मैने उससे कहा...तुम पहले जाओ...मैं आता हूं। वह चली गई और मै अपना बैग उठाने के बहाने अपने कमरे में घुस गया। जी तो करता नहीं था ट्यूशन पढऩे का इसलिए सोचा कुछ देर और लग जाए तो कम से पांच जल्दी बज जाएंगे। लेकिन हमेशा की तरह मेरी मंशा को भांप मेरे टीचर ने आवाज लगाई...आशीष कहां हो...आना नहीं है क्या। मैंने कहा...आ रहा हूं सर। एक कुर्सी खाली थी। सामने आचार्य जी और एक कुर्सी पर मेरी बहन बैठी पढ़ रही थी। मैने कॉपी निकाली और किताबें। होमवर्क चेक कराया। जो नहीं किया था उसके लिए हमेशा की तरह लंबी डांट पड़ी। बहाने भी वहीं पुराने वाले बनाए कि...सर स्कूल में काम ज्यादा मिला थाए इसलिए होमवर्क नहीं किया...मम्मी के साथ बाजार चला गया था...रात को जल्दी सो गया था...या पेट में दर्द हो रहा था...वगैरा...वगैरा...। बावजूद इसके पिटाई मेरी हो ही जाती थी। 
खैर, जहां पर मैं बैठता था मुझे याद है सामने की दीवार पर घड़ी लगी हुई थी। मैं हमेशा अपने टीचर की नजरों से बचते हुए उसकी ओर निगाहे दौड़ा ही लेता था। और देखता था कि बड़ी वाली सुई कहां पर है। सुकून तब मिलने लगता था जब बड़ी (मिनट वाली सुई) सुई नौ के करीब पहुंच जाती थी। मुझे लगता था कि ...बस...अब जल्द ही छूटने वाला हूं। जैसे ही मेरे टीचर होमवर्क देना शुरू करते थे तो मुझे लगता था...चलो...बंधन से मुक्ति मिली...और उनके जाने के बाद सीधे मैदान पर। उस जुनून के साथ जैसे कोई अभी आजाद हुआ हो...।

  यादों के झरोखे से फिलहाल इतना ही...क्योंकि लिखते लिखते काफी समय लग गया। शायद सवा बारह बजने को हैं। और आज मैंने अपना फेवरेट तारक मेहता का उल्टा चश्मा भी नहीं देखा। पत्नी की आवाज आती है...चलो अब खाना भी खा लिया जाए...मैं उठता हूं...और हाथ धोने से लेकर खाने की टेबल तक आने में मुझे कई बार उसी साइकिल की घंटी की आवाज सुनाई देती है। जिसको सुनकर मैं हमेशा सोचता था...काश तीन बजने के बाद पांच बजा करें...।  क्रमश: ...

2 comments:

ashok pradhan said...

काम करने के बाद रात को दफ्तर से घर kab se lotne lage ho tum...aahate jana band kar diye ho kya....madhusaala suna karo

आशीष तिवारी said...

@mere ram: ha ha ha ha ha ha...ab aap to hai nahi jo aahate jaaya karoo...miis u...