Tuesday, August 2, 2011

जिंदू...अरे ओ जिंदू...कहां हैं तू...

बात शायद सन निन्यानवे की है। रात का आधा पहर बीतने को था...पहाड़ पर सन्नाटा था...अगर कोई आवाज उस सन्नाटे को चीरती भी थी तो वह सिर्फ कुछ जानवरों की आवाजें ही थीं। मैं बढ़ा चला जा रहा था। उस ओर जहां पर उसने मुझसे मिलने को कहा था। तकरीबन शहर से तीन किलोमीटर दूर मैं उसकी बताई हुई जगह पर पहुंचा। देखा कि पहाड़ी के ऊपर एक छोटी सी झोपड़ीनुमा कोई जगह हैं जहां पर लाइट टिमटिमा रही है। मैं उस ओर बढ़ा। तभी किसी ने मेरा हाथ झट से पकड़ लिया...मैं पीछे मुड़ा तो देखा...कि तकरीबन नौ साल का एक छोटा सा लड़का खड़ा था। मैंने उसको देखा और पूछा...तुम...तुम यहां हो..तुमने तो कहा था कि घर पर आना। सो मैं उधर ही जा रहा था। जिंदगी नाम था उसका...पता नहीं कैसा नाम रखा था उसके घर वालों ने...जिंदगी...खैर मैने कहा...लेकिन जिंदू तुझे तो इस वक्त हर हाल में घर में होना चाहिए था...फिर कौन होगा घर में...उसने कहा कि कोई नहीं...दादी ही हैं...उसने मेरी उंगली पकड़ी ओर मुझे अपने घर की ओर लेकर चल पड़ा।
एक कमरा उसके पीछे एक छोटा सा कमरा। शायद वह कमरा खाना बनाने के आता था। लेकिन देखने पर ऐसा लगा कि यहां पर सालों से चूल्हा ही नहीं जला। एक लकड़ी का तखत था जो शायद आज कल...आज कल में टूट सकता था। उस पर करीब पैंसठ साल की एक बूढ़ी बुजुर्ग महिला लेटी थी। लाचारी और गरीबी ने शायद उम्र को और बढ़ा दिया था। खैर, मुझे देखकर उठने की कोशिश की लेकिन मैंने उनको लिटा दिया। खरखराहट भरी आवाज में कहा कि...जिंदू...तू अब आ पाया है। मैंने तो खाना भी अभी नहीं खाया है...उसने अपने झोले से एक कपड़ा निकाला उसमें कुछ रोटियां थी। एक कटोरे जैसा बर्तन था उसमें दाल और सब्जी मिक्स थी। जिंदू झट से गया और एक साफ कटोरी तथा थाली ले आया। जिसमें उसने दो रोटी और थोडी सी मिक्स वाली दाल सब्जी डाल कर मेरे सामने परोस दी। और खुद कपड़े से रोटियों को निकाल पर अपनी दादी के तखत पर बैठ कर उनको खिलाने लगा। महज नौ साल के मासूम जिंदू को देखकर उसकी मासूमियत का अंदाजा तो लग रहा था लेकिन शायद जिम्मेदारियों ने उसको कब का बड़ा और मेच्योर बना दिया था। मुझसे बोला...भैया...आप आराम से खाइये में दादी के साथ खाकर इनको दवा भी खिलाऊंगा। मैंने हां में सिर हिलाकर रोटी का एक टुकड़ा और मुंह में डाला।
जिंदू...यही वही लड़का है जब मैं पहली बार नैनीताल गया था तो बस से उतरने के बाद सबसे पहले मिला था। एक बैग था मेरे पास उसको उसने पकड़ कर कहा था..भैया...आइये मैं आपको होटल दिखलाता हूं...बहुत अच्छा होटल है...रेट भी वाजिब हैं...कंबल भी मिलेगा...और चाय बनाने वाली मशीन भी कमरे होगी...और न जाने कौन कौन सी बाते होटल के बारे में बता रहा था। वहां पर ऐसे बहुत से लोग थे अपने कमीशन के चक्कर में मुझको होटल में ले जाने के लिए आगे पीछे लगे थे लेकिन मैंने उससे पूछा...चलो कहां है आपका होटल। मॉल रोड से ऊपर बिड़ला विद्या मंदिर को जाने वाले रास्ते पर लेकर वह चला। रास्ते में बातचीत भी हुई। बोला...भैया इस वक्त तो ऑफ सीजन है न...इसलिए चार सौ रुपये में कमरा मिल जाएगा...वरना सीजन में तो इन्हीं कमरों के दो से तीन हजार रुपये तक वसूले जाते हैं। मैंने भी रास्ता काटने के लिए पूछ लिया कि तुम्हे कितने मिलते हैं...यह सुनकर वह तुरंत बोला...मुझे...मुझे कभी कभार ही मिलते हैं। लेकिन खाना दोनों समय का मिल जाता है। मेरी दादी के लिए भी ये लोग खाना दे देते हैं। इसलिए मैं बस स्टैंड पर हर आने वाले को यहां लाने की कोशिश करता हूं। इतनी बातों में होटल भी आ गया था। उसने हमें लेक की ओर का कमरा दिलवाया। मुझे उसकी बातें सुनकर बहुत अच्छा लगा सो मैंने उसको अपने कमरे में बुलवाया। पूछा तुम्हारा नाम क्या है...बोला घर में दादी जिंदू कहती है...वैसे स्कूल का नाम जिंदगी है। मैंने पूछा कहां पढ़ते हो...तो उसने कहा कि कहीं नहीं...पहले पढ़ता था...और इतना कहते हुए वह कमरे से भाग गया। शायद किसी और कस्टमर को लाने के लिए बस स्टैंड पर। मैं भी नहा धोकर अपने काम के लिए चला गया। लौटकर शाम को आया तो देखा कि जिंदू...होटल के रिसेप्शन पर खड़ा था। मैंने उससे हेलो की और वहीं पड़े दो सोफों में से एक पर खुद बैठ गया और एक पर उसे बिठाया। इस बार बड़ी तसल्लीबक्श उससे बात की। उसने बताया कि उसको पता नहीं कि मां बाप क्या होते हैं। जब से जानने वाला हुआ हूं तब से दादी को ही देखा है। पहले वह भी मॉल रोड की दुकानों में साफ सफाई का काम करती थी अब बीमारी से वह सब छूट गया है। सारा बोझ उस नन्हीं सी जान पर आ गया है। दवा से लेकर खाने तक का इंतजाम उसको ही करना पड़ता है। उससे बात करके और मिलकर बहुत अच्छा लगा मुझे। उसी दिन मुझे वापस भी आना था सो रात की बस पर वह मुझे चढ़ाने के लिए भी आया। मैंने उसको सौ रुपये निकाले और दिए। पहले तो उसने लेने से मना कर दिया लेकिन काफी जिद करने पर उसने रुपये रख लिए। बस चल पड़ी। लालकुंआ पहुंचा और अपनी ट्रेन में बैठ गया। पांच घंटे के सफर के बाद मैं अपने घर पहुंच गया। तकरीबन तीन बजे के करीब मैं घर पहुुंचा और सोने की तैयारी करने लगा। नींद ही नहीं आई। उस बच्चे के बारे में सोचता रहा। खैर सुबह हुई और मैं उठा। उन दिनों मैं कॉलेज में पढ़ता था। कॉलेज पहुंचा और अपने दोस्तों में मगन हो गया। धीरे धीरे एक महीना, दो महीने, चार महीने और छह महीने बीतते बीतते दो साल हो गए। एक दिन मुझे जिंदगी की याद आई तो मैंने नैनीताल के उस होटल में फोन मिलाया। मैंने पूछा कि एक आपके यहां लड़का काम करता है जिंदगी...क्या बात हो जाएगी उससे। उधर से जवाब आया कि वह तो पिछले तीन महीने से नहीं आ रहा है। उसकी दादी की तबियत ज्यादा खराब थी तो उसने बस स्टैंड के पास एक चाय की दुकान पर नौकरी कर ली। मैंने पूछा कि क्या वहां का कोई नंबर होगा। उसने न में जवाब दिया तो मानों ऐसा लगा कि शायद सब कुछ शून्य सा हो गया हो। बड़ा अजीब लगा मुझे। मैं जैसे तैसे बहाना बनाकर नैनीताल पहुंच गया। बस स्टैंड पर बहुत से चाय वाले देखे लेकिन मुझे जिंदू कहीं नहीं दिखा। लोगों से पूछा, उस होटल में जाकर भी पूछा लेकिन कुछ पता नहीं चला। में मायूस होकर मॉल रोड से नैना देवी मंदिर की ओर जाने लगा। जैसे ही मंदिर के पास पहुंचा तो देखा कि कुछ चाय वाले उधर भी हैं। मैने सोचा उनसे ही पूछ लूं...तभी देखा कि जिंदगी चार चाय के खाली ग्लास लेकर आ रहा है। उसने मुझे देखा तो एक बारगी पहनान ही नहीं पाया। उसको मेरे आने का मकसद भी नहीं पता था। उसको देखकर ऐसा लगा कि मानों सालों से खोया कोई अपना मिल गया हो। उसने मुझे पुराना जान पहचान का युवक समझ कर चाय पिलाई। मैंने पूछा कि अब दादी कैंसी हैं। बोला कि ठीक नहीं है। तभी तो अब कुछ पैसों के लिए यहां काम करना पड़ा। मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हारी दादी से मिलना चाहता हूं। उसने एक झटके में हां कर दी...और कहा कि भैया...फिर आपको रात को आना होगा...तकरीबन ग्यारह बजे के बाद...मैं तभी घर पहुंचता हूं। मैने हां कर दी और उसने अपना पता बता दिया।
खाना खतम हो चुका था। जिंदगी ने मेरे सामने रखी थाली हटाई। और कहा कि भैया मिलो दादी से...। मैंने उनसे बात की तो पता चला कि उनको स्पाइन की कोई समस्या है। डॉक्टरों ने कहा कि या तो इसका इलाज दिल्ली एम्स में है या फिर पीजीआई चंडीगढ़। मैं दोनों लोगों से ढेर देर तक बाते करता रहा। मैंने बूढ़ी दादी को बताया कि मैं अभी पढ़ाई कर रहा हूं...लेकिन जब कभी नौकरी लगेगी तो मैं आपके इलाज में जितनी मदद कर सकूंगा उतनी करूंगा। इतना सुनते ही जिंदू मेरे गले लिपट गया...और मैं उसकी तथा अपनी आंखों में आए आंसुओं को पोछता रहा...रात के करीबन डेढ़ बज रहे थे तो मैंने जिंदू को मेरी जेब में जितने रुपये थे उनमें से महज डेढ़ सौ रुपये छोड़कर सब दे दिए। मुझे जहां तक याद आ रहा है...शायद उसको तैतीस सौ रुपये दिए थे। मैं वहां से चल पड़ा...रात को बस पकड़ी...बरेली और बरेली सीधे गोला...।
समय बीतता गया और मैं दाने पानी के जुगाड़ में लखनऊ, बरेली, बदायूं और फिर वापस लखनऊ...उसके बाद चंडीगढ़ का रास्ता पकड़ लिया। नौकरी के लिए संघर्ष करना पड़ा सो एक लंबे अंतराल तक जिंदू से बात नहीं हुई। सन दो हजार छह में अचानक मेरे मोबाइल पर एक फोन आया...जिस नंबर से फोन आया दरअसल वह नंबर कभी मेरा होता था लेकिन चंडीगढ़ आने से पहले उसको बंद करा दिया था। इसलिए यह नंबर अब किसी बलिया के व्यक्ति ने ले लिया था। खैर, उस फोन करने वाले ने बताया कि आपका नया नंबर मुझे आपके पुराने संस्थान से मिला है। दरअसल एक जिंदू नाम का कोई लड़का आपको बहुत फोन करता था। मैं उससे बार बार कहता था कि यह नंबर अब मेरे पास है लेकिन वह यही जिद करता था कि भैया से पूछो वह मुझसे किस बात से नाराज हैं। क्यों नहीं बात करते हैंं मुझसे....फोन करने वाला शख्स यह बताता रहा और मेरी आंखो से झर झर आंसू बहते रहे। मैंने उससे पूछा कोई नंबर होगा जिससे वह फोन करता था। उसने जो नंबर दिया मैंने तत्काल उस पर फोन किया तो पता चला कि वह किसी पीसीओ का नंबर है लेकिन वह जिंदू को जानता था। पीसीओ वाले ने कहा कि...सर...जिंदू तो अब इस दुनिया में नहीं रहा...अपनी दादी का इलाज कराने जा रहा था...रास्ते में उनकी बस खड्ड में गिर गई। जहां दोनों लोगों की मौत हो गई...। इतना सुनते ही मैं चीख पड़ा....और मेरी चीख सुनकर मेरी बीबी ने मुझको हिलाते हुए जगाया और चिल्लाई...कौन सा सपना देख लिया जो इतनी तेज चीखे हो...देखो...आरव(मेरा एक साल का बेटा) भी जाग गया...मैं तुंरत उठा...घडी की ओर देखा तो सुबह के सवा सात बजे थे...बाहर मौसम सुहाना था...मैं सैर के लिए निकल पड़ा...उस सपने को याद करते हुए...जो कभी सालों पहले हकीकत हुआ करता था...उस जिंदू को जो मुझे पहली बार नंगे पांव बस स्टैंड पर मिला था...।


3 comments:

Sachin Khurana said...

sir adbhut.. captivating to the core.. bahut hi gehri baat hai is zindagi ke kisse mein..

Unknown said...

मार्मिक. खासतौर से उस दौर में जब जिंदगी का वजन दिनों दिन गिरते रूपए से भी हल्का होता जा रहा है।

Unknown said...

मार्मिक. जिन्दगी की वजन महसूस हुआ।