अब शाम ढलने लगी थी। लद्दाख की भूरी
पहाड़ियों पर अंधेरा छाने को था। इसी के साथ ठंड भी बढ़ने लगी थी और हमारी बस का ड्राइवर
न जाने कहां गुम था। एक एक करके हेमिस मॉनेस्ट्री से गाड़ियां निकलने लगी। अकबर और
रजनी से गुजारिश की कि…भई…अब तुम लोग ही जाओ और बस ड्राइवर को ढूंढ कर लाओ। भगवान
जाने कैसे इतनी भीड़ में मंगोलियन शक्ल वाला एक आदमी दोनों जने ले आए। अकबर बोला…ले
आए ड्राइवर को। चलो भई बस में चढ़ जाओ। ज्यादातर लोग तो बस के अंदर चढ़े लेकिन कोलकाता
के अनिर्बान, पटना के सुमित और बंगलूरू के सुदर्शन समेत कुछ और लोग बस की छत पर चढ़
गए।
बस अब हिचकोले खाती हुई काली सड़क पर
लेह शहर की ओर दौड़ी जा रही थी। सड़क के साथ साथ नीचे की ओर बह रही इंडस रिवर और उसके
पीछे पहाड़ियों में सूरज के अस्त होने की लालिमा का जो संगम था वह देखते ही बनता था।
मेरे आगे वाली सीट पर शायदा जी थी। शायदा जी
इंडस नदी की उपयोगिता पर प्रकाश डालती रहीं और हममें से ज्यादातर लोग उनके ज्ञान का
अर्जन करते रहे। तभी बस की छत से तेज आवाजे आने लगी। हम लोग डर गए न जाने क्या हुआ।
बस रोकी गई तो पता चला जो साथी बस की छत पर लद्दाख को एंज्वॉय कर रहे थे वह जीरो डिग्री
के करीब पहुंचने वाले पारे में कड़कड़ाने लगे थे और नीचे आने के लिए बेताब थे। सभी
लोगों की ठंड के चलते पूरी तरह से बैंड बज चुकी थी। अब सब बस के अंदर थे और एक साथ
आवाज उठी कि कहीं पर चाय पी जाए।
कुछ देर में हम लोग एक वीराने इलाके
में बहुत ही छोटी सी चाय की दुकान पर थे। दुकान में घुसते ही मैगी से लेकर चिप्स और
चाय पर हमला शुरू हुआ जो करीब आधे घंटे तक चला। चाय पीते पीते ही पता चला कि जो शख्स
चाय बना रहे थे वो लद्दाखी सिनेमा के स्टार हैं। कई सिनेमा में काम कर चुके हैं। उनकी
कई फिल्मों के तो पोस्टर भी उनकी दुकान में लगे थे। फिल्मी दुकानदार से बात हो रही ही थी कि
पीछे से एक तेज अवाज आई…बाहर नहीं निकलेगा क्या तुम लोग…अरे उधर भी तो देखेगा…ये आवाज
राहुल की थी। वो करीब 12 हजार फीट की ऊंचाई से निकलने वाले चांद को दिखाने को बेताब
था। एक पहाड़ी की ओट में सूरज सी रोशनी के साथ लखनऊ की धरती से दिखने वाले चांद की
तुलना में कई गुना बड़ा चांद निकल रहा था। ये वास्तव में एक अद्भुत नजारा था। मैंने
ऐसा ही एक बार चांद लगभग इतनी ही ऊंचाई से सिक्किम के नाथूला में निकलते देखा था। इतनी
ऊंचाई से चांद को देखना और देखते रहना निश्चित ही सबके लिए एक अनोखा अनुभव था।
तभी एक आवाज आई कि चलो भई…लेह भी पहुंचना
है। कल की भी कुछ तैयारी की जाए। अब सवाल था कि कल दोबारा हेमिस जाया जाए या फिर पैंगॉंग लेक। माइनस डिग्री के सत्रह हजार फीट पर बने चांगला पास को पार करते हुए करीब
14 हजार फीट की ऊंचाई पर नीले पानी की दुनिया की सबसे खूबसूरत सी झील पर कौन नहीं पहुंचना
चाहेगा। ज्यादातर लोगों ने हां की। बस फिर क्या था। बस में ही तैयारी शुरू हुई पैंगॉंग लेक पर जाने की। बजट…यही मुद्दा था। कितना रुपया लगेगा और उसको बस में इकट्ठा कौन करेगा।
सर्वसम्मति से एकध्वनि में आशीष तिवारी यानीकि मैं, मेरा नाम पास हो गया कि मैं कंडक्टर
बनकर सबसे रुपये कलेक्ट करूं और फिर उसी रात को अगली सुबह के लिए टैक्सी का इंतजाम
करूं। बस फिर क्या था। यूपी की सरकारी बसों में खूब सफर किया है मैंने। कान पर चढ़ाया
पेन और हाथ में लिया कागज…इकट्ठे होने लगे रुपये। चंद मिनट में तकरीबन 24 हजार रुपया
हाथ् में।
खैर, रात के नौ बजने वाले थे। लेह शहर
का एक तबका तो शायद नींद में था लेकिन मुख्य सड़कों की बाजारें कुछ हद तक गुलजार थीं।
सामने एक टैक्सी वाले का बोर्ड देखकर मैं और अकबर वहां पहुंचे। उसने पैंगॉंग लेक तक दो
ट्रैवलर का जितना किराया बताया वो बहुत ज्यादा था। टैक्सी वाले का नाम दानिश खान था।
अकबर भाई ने तुरंत टांका भिंड़ाया और खुद को अकबर खान टाइपस जैसा बताते हुए सौदा पटा लिया। एडवांस दिया गया और सुबह पांच बजे दो गाड़ियों को
हम लोगों के होटेल्स में
भेजेन को कहा गया।
फिलहाल थोड़ी देर में सभी लोग अपने अपने
होटेल्स पहुंचे। रास्ते में लखनऊ के नंबर वाली मारुती 800 एक कार को देखकर अकबर भाई
थोड़ा इमोशनल हो गए कि यार लद्दाख में भी लखनऊ की कार। थोड़ा प्राउड भी हुआ कि लखनउव्वे
कहीं भी पहुंच जाते हैं...
क्रमश…