चंडीगढ़ से निकलते हुए काफी लेट हो गया था। शिमला
तक पहुंचते पहुंचते तो शाम होने को आ गई थी। बहुत दूर जाना था। शिमले से भी ऊपर। ठियोग
से भी आगे। मशोबरा तक पहुंचते पहुंचते पहाड़ घुप्प अंधेरे में डूब गए थे। दूर पहाड़ों
पर लाइटें टिमटिमाने लगी थीं। मैने अपनी कार की लाइटें भी जला दी थी। धुंध इतनी तेज
थी कि पूछो मत। गाड़ी की स्पीड बहुत कम थी। सुनसान रास्ते में कोई आने जाने वाला भी
नहीं दिख रहा था। अगर कोई दिख रहा था तो वह थे घोड़े और उनको ले जाने वाले कुछ लोग।
जो कुफरी में रोज सुबह अपने धंधे पानी की तलाश में निकलने के बाद रात को वापस घर लौट
रहे थे। अंजान रास्ता। मेरी कार की स्पीड चाहते हुए भी तेज नहीं हो पा रही थी। ठियोग
पहुंचते ही फोन आया…हेलो…सर...कहां तक पहुंचे। मैंने लोकेशन
बताई। तो उधर से अवाज आई…अच्छा ठीक है। तो आपको पहुंचते
हुए नौ बज जाएंगे। मैंने भी कहां हां लग तो रहा है। शायद और ज्यादा ही वक्त लग जाए।
क्योंकि धुंध बहुत है। वैसे यू डोंट वरी। मुझे आपके गांव का नाम पता है। सड़क पर ही
है। मैं पहुंच जाऊंगा।
ये निशा के पति देवेश का फोन था। वहीं निशा जिसने
कभी हमारे साथ काम किया था। मैं ट्रेनी जर्नलिस्ट था अमर उजाला चंडीगढ़ में। और निशा
हिमाचल से मॉस कॉम की पढ़ाई पूरी करके इंटर्नशिप करने चंडीगढ़ आई थी। सीनियर था उसका
सो रिस्पेक्ट बहुत करती थी। निशा की शादी कब हुई इसका पता नहीं लेकिन उससे सात साल
बाद मुलाकात 2012 चंडीगढ़ के मेडिकल कॉलेज में हुई थी। मुझे याद है एक शाम मैं खबरों
को लिखने में लगा था। तभी फोन बजा। उधर से आवाज आई। हेलो सर…सर मैं निशा…निशा जिंटा। आपने मुझे पहचाना।
मैं कुछ जवाब देता इतने में उधर से फिर आवाज आई। अरे सर मैं वहीं हूं जो आपके यहां
इंटर्नशिप करने आई थी। शिमला से। कुछ याद आया। हां…हां...याद आया। अरे निशा…इतने सालों बाद। क्या हाल है
तुम्हारा। फिर उधर से जो आवाज आई वो रुंधे गले से थी। उसने बताया कि मेरे पति का शिमला
से पहले बहुत बड़ा एक्सीडेंट हो गया है। वो रोहड़ू से बस से शिमला आ रहे थे। बस खड्ड
में गिर गई। उनको बहुत चोट आई है। डॉक्टरों ने कहा है कि स्पाइन की सर्जरी होगी। रिस्क
बहुत बताया है। कहां है कि जान भी जा सकती है। इतना कहते हुए वह फोन पर ही रोने लगी।
प्लीज कुछ करके उनको बचा लो। मैंने अपने जानने वाले एक डॉक्टर से सारा मामला बताया।
तो उन्होंने अगली सुबह उसको चंडीगढ़ बुलाया। पूरा एक्जॉमिन करने के बाद उसका इलाज शुरू
हुआ। एक महीने से ज्यादा इलाज चला अस्पताल में। मैं उसके पति से भी मिला। डॉक्टर ने
नई जिंदगी दी थी इसलिए पति पत्नी बहुत खुश थे। इलाज के बाद दोनों हिमाचल वापस अपने
गांव चले गए।
उसके बाद दोनों लोगों ने मुझे अपने गांव
बहुत बुलाया। देवेश वहां के सरकारी इंटर कालेज में कहीं लेक्चरर है। निशा पता नहीं
क्या कर रही है। लेकिन उसके एप्पल के आर्चर्ड हैं। खैर लगातार फोन आते गए देवेश और निशा के। बहुत बार अपने
गांव बुलायर लेकिन मैं पहुंच नहीं पाया। इसी दौरान मेरे चंडीगढ़ से बोरिया बिस्तरा
पैक करने का वक्त भी आ गया। अमर उजाला में नोटिस पर चल रहा था। बारी थी घूमने की। सो
देवेश और निशा के गांव चल पड़े।
तभी देवेश का गांव आ गया। एक दम सुनसान
इलाके में। मई के महीने में भी ऐसा लग रहा था कि यहां पारा जम चुका हो। आकाश में तारे
टिमटिमा रहे थे। दूर…बहुत दूर…कहीं चांद निकलने की कोशिश कर रहा था। आधी रात हो
चुकी थी। मैं अपनी वाइफ और बेटे के साथ गाडी से उतरा। देवेश और निशा समेत पूरा घर इंतजार
कर रहा था। रात को खूब देर तक गप्पे मारी। फिर हम लोग सोने चले गए।
सुबह आंख खुली तो हमेशा की तरह सात आठ अखबार
मेरे बेड पर पड़े थे। लखनऊ में कहने भर को मानसून पहुंच चुका था। सड़ी हुई गर्मी अभी
भी मुंह चिढ़ा रही थी। एक खूबसूरत हसीन सपना जो पिछले साल हकीकत में था वो फिलहाल टूट
चुका था…J
2 comments:
खूब लिखा वाह।
बहुर दिनों बाद आज ब्लॉग पर देखा आपको ...
अच्छा लगा ...
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